2 अक्तूबर 2023

बरगद के नीचे का पादप

                        डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

              जैसे बरगद के नीचे उगने वाले पादप आगे चलकर कुपोषित होकर न केवल पीले पड़ जाते हैं,अपितु निष्प्राण भी हो 

जाते हैं ।  वैसे ही महान विभूतियों के ठीक के आसपास या परिवार में जर्मनी वाले व्यक्तित्व अपनी बड़ी गरिमा के बावजूद पनप नहीं पाते और उनके साथ न्याय नहीं हो पाता।

        यह साधारण बात नहीं है कि बचपन में नदी तैर कर पढ़ने जाने वाला सामान्य विद्यार्थी प्रधानमंत्री बनता है। इन असामान्य प्रतिभा के धनी व्यक्तित्वों का कोई खास नामलेवा पहले नहीं होता लेकिन ऐसी विभूतियों की मृत्यु के बाद लोगों का तांता लग जाता है।सब अपने- अपने उल्लू सीधे करते हैं।

       नेहरू की मृत्यु के बाद ही कांग्रेस को पता चलता है कि भारत जैसे बड़े लोकतंत्र का बड़ा नेता लाल बहादुर शास्त्री ही हो सकता है। ऐसे देश का नेतृत्व जिसमें बहुभाषी संस्कृति और बहुलतावादी विचारधारा के लोग रहते हैं, उसमें लाल बहादुर शास्त्री जैसा समन्वयशील व्यक्ति प्रधानमंत्री बनना बहुत बड़ी बात नहीं।

        उनका साधारण परिवार में जन्म लेकर भीड़ इतने बड़े पद के उपयुक्त माना जाना यानी कांग्रेस के द्वारा उनका प्रधानमंत्री पद के लिए चयन उस समय की एक बड़ी परिघटना थी। वह इसलिए कि नेहरू जैसे बड़े व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के परिवार से कोई व्यक्ति ना लिया जाकर बाहर से लिया गया व्यक्ति प्रधानमंत्री बन रहा था। यह बात और है कि इस क्रांतिकारी कदम का स्वागत कांग्रेस के भीतर ही कुछ लोग नहीं कर सके और जिन परिस्थितियों में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु ताशकंद में हुई वह आज भी जांच का विषय है। उनकी मृत्यु आज भी संदेह के घेरे में है।ऐसा क्या हुआ उनके साथ जो  उनका शरीर नीला पड़ गया था। ऐसा क्या हुआ उनके साथ कि उनके लिए कोई जांच समिति नहीं बनी। ऐसा क्या हुआ उस शास्त्री जी के साथ कि लाल बहादुर शास्त्री को आनन-फानन में भारत लाकर अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनकी  पोस्टमार्टम रिपोर्ट की बहुत सारी बातें हैं जो लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु की परिघटना को संदेह के घेरे लाती है।

        लाल बहादुर शास्त्री का व्यक्तित्व बहुत ही सादा, सरल और सहज था।ईमानदारी की प्रतिमूर्ति थे शास्त्री जी।एक बार वे अपने बच्चों को मेला ले गए थे। उसे समय उनके पास एक रुपया भी नहीं था तो उन्होंने अपनी बहन से पांच रुपए उधार लिए ताकि अगर सुनील शास्त्री  और अनिल शास्त्री में से

कोई बेटा  उनसे कुछ सामान लेने के लिए दबाव बनाए तो वे उधार लिए हुए ₹5 में से खर्च कर सकेंगे लेकिन पूरा मेला घूमने के बाद भी न अनिल को कुछ खरीद कर दिया और न सुनील को।दोनों बच्चे उदास और निराश भाव से उनके साथ घर वापस आ गए। जब उन्होंने पांच रुपए अपनी बहन को वापस किए तब उन बच्चों की प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी कि बुआ को पांच आप दे सकते हैं और हमको कुछ लेकर नहीं दे सकते। इसपर शास्त्री जी ने कहा बेटा इन्हीं से उधार लिए थे। जब खर्च ही नहीं हुए तो अपने पास रखकर के कर्ज क्यों बढ़ाता।उनके जीवन की और भी बहुत सारी घटनाएं हैं, जो हमें बताती हैं कि जीवन के जो मूल्य हैं,वे इनमें गन्ने के भीतर रस की भांति समाए हैं।

       मूल्य के जो पक्षधर हैं,वे कभी समझौता नहीं करते। आर्थिक मूल्य से लेकर सांस्कृतिक मूल्यों तक से इन्होंने अपने को एक इंच भी इधर से उधर नहीं किया। जीवन मूल्यों के अनुपालन में तो ये बापू से भी अधिक सख्त थे।

           एक बार इन्होंने अपने बेटे सुनील शास्त्री को मिट्टी का तेल लेने के लिए राशन की दुकान पर भेजा। राशन की दुकान वाले ने देखा कि प्रधानमंत्री का बेटा लाइन में खड़ा है तो उसने तुरंत उनको आगे से तेल दे दिया। सुनील जी जब लौट के घर गए तो उनके पिता ने पूछा इतनी जल्दी कैसे आ गए तो उन्होंने सारा वृत्तांत बताया। इस बार शास्त्री जी ने कहा तुम उल्टे पांव वापस जाओ और यह तेल उसे वापस कर दो  और अपनी बारी के लिए खड़े हो जाओ। जब तुम्हारी बारी आए तब तेल लेकर आना। यह थे शास्त्री जी और यह था उनका जीवन मूल्य।

         शास्त्री के जीवन मूल्यों से हमारे समाज को बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।a जनता से लेकर हमारे मंत्रियों, विधायकों और प्रशासकों तक के लिए एक आदर्श थे शास्त्री जी।

            सन् 1965की विजय के बावजूद दुनिया की गंदी राजनीति ने भारत पर समझौते का दबाव बनाया। जीती हुई भूमि पाक को वापस करनी पड़ी। उनकी मृत्यु के पीछे सदमे का तर्क दिया जाता है। लेकिन जिस जीवट से उन्होंने पाकिस्तान  को भीगी बिल्ली बना के छोड़ा था उससे तो कतई नहीं लगता कि वे हृदयाघात के लायक़ कमज़ोर दिल वाले इंसान थे।

          बापू के बाद विकृत मानसिकता और पद लोलुपता के मगरमच्छ ने हमारे इस कोहिनूर को भी असमय हज़म कर लिया।

            दो अक्तूबर को बापू के जन्मदिन के चलते इनको लोक अक्सर भूल जाते हैं।जो याद भी करते हैं वे दो तीन वाक्यों में ही अपने वक्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।इस दृष्टि से भारत के दूसरे प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री 

बरगद के नीचे का पादप हैं, जिन्हें बापू जैसे बहुत बड़े बरगद के नीचे होने के कारण प्राय: उपेक्षित कर दिया जाता है।

19 सितंबर 2023

कल के हिंदी दिवस पर एक गीत


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हिदी बोलें पढ़ें ,लिखें सब हिंदी को अपनाएँ



- डॉ.गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'

संस्कृत है वटवृक्ष राष्टृ की फैली सरल जटाएँ

असमी,उड़िया, गुजराती औ मलयालम भाषाएँ

तमिल,तेलगू,कन्नड़, बांग्ला सुंदर-सी शाखाएँ

सब में मधु घोला है सारी अमृत ही बरसाएँ

इनको छोड़ पराई माई कैसे गले लगाएँ.

अपनी भाषा पढ़ेँ,लिखेँ औ उसको ही सरसाएँ।।

 


जहाँ किसी ने अपनी माँ का आदर नहीं किया है

कहो कहाँ पर गरल अयश का उसने नहीं पिया है

गौरव मिलता उसी वीर को जिसने माँ का मान किया

माँ की खातिर खुद को जिसने हँस-हँस के कुर्बान किया

अपनी माँ  ठुकराकर कैसे गीत और के गाएँ?

हिदी बोलें पढ़ें ,लिखें सब हिंदी को अपनाएँ।।

 

अपनी आज़ादी की खातिर अपनी ही भाषाएँ

लड़ने वाले वीरों के हित करती रहीं दुआएँ

और बाँचती रहीं सदा ही उनकी अमर कथाएँ

अंग्रेज़ी ने कब आँकी हैं जन-मन की पीड़ाएँ

फिर क्यों इतनी ममता उससे ,क्योंकर मोह दिखाएँ ?

हिदी बोलें पढ़ें ,लिखें सब हिंदी को अपनाएँ।।


अपनी सरिता का जल पीते ,अपना अन्न उगाते

अपनी धरती का हर कोना फ़सलों से लहराते

अपनी भाषाएँ हैं अपनी परम पुनीत ऋचाएँ

अपनेपन की हो सकती हैं इनसे ही आशाएँ

अब तो और नहीं इंग्लिश की फैलें जटिल लताएँ।

हिदी बोलें पढ़ें ,लिखें सब हिंदी को अपनाएँ।।

              *****

9 सितंबर 2023

वे खलनायक नहीं थे -

 भय,मेरी नाप के कपड़े,आशियाना और बावड़ी जैसी नायाब कहानियों की शिल्पकार कविता जी का (राजेंद्र यादव पर अब तक लिखे गए अनगिनत संस्मरणों में सबसे अलग और बेलाग) संस्मरण 'वे खल नायक नहीं थे।'

प्रस्तुति - डॉ० गुणशेखर


आज राजेन्द्र जी पर जब लिखने बैठी हूँ, ऐन सुबह का वही समय है जब वे अपने पढ़ने के टेबल पर नियमित रूप से विद्यमान होते थे- अपनी शारीरिक-मानसिक विवशताओं के बावजूद, उस उम्र में भी। उनका वह कमरा, उनकी वह मेज, कुर्सी, किताबें और उनका वह दफ्तर सब उन्हें मिस कर रहे होंगे, ठीक मेरी ही तरह...


वर्षों की यह समयावधि यदि बहुत बड़ी नहीं तो बहुत छोटी भी नहीं है। मैं कलम लिए चुपचाप बैठी हूँ, लिखूँ तो क्या लिखूँ और नहीं लिखूँ तो क्या। शब्द जैसे चुक-से गए हैं। पर कहना तो है ही चाहे इस चुकी हुई भाषा में ही सही... 


यादें बहुत सारी हैं। हां,यादें हीं...हालांकि उन्हें यादें स्मृतियां कह कर संबोधित करते हुये अभी भी कलम थरथराती है, जुबां की तरह... मैं तय करती हूँ उनके लेखक और संपादक रूप पर नहीं लिखूँगी, वह सब तो जगविदित है। अभी बस वो बातें जो मुझसे या हमसे या हम सबसे जुड़ी हैं..


वह 1998 रहा होगा। 23 नव. को पिता की बरसी पर एक कविता लिखी थी – ‘क्षण–क्षण कर के न जाने बीत चुके है / कितने अंतहीन बरस / इतने बरस कम तो नहीं होते पिता / राम का वनवास भी खत्म हो गया था सिर्फ चौदह वर्षो मे /मेरी तपस्या का कोई अंत नहीं...क्षण भर को ही सही / मेरे सपनों मे आ जाओ पिता / मैं तुम्हारे साथ हँसना-हंसाना चाहती हूँ / खीजना-खिजाना चाहती हूँ/ जिदें करना और उन्हें मनवाना चाहती हूँ / चाहती हूँ तुम्हारे साथ, तुम्हारे सहारे जीना /अपना निलंबित बचपन।'...पिता नहीं आ सकत थे, वे नहीं आए थे। सपनों मे भी नहीं… पर यह दुआ जैसे कुबूल हो गई थी। उन जैसी ही एक छवि कुछ दिनों बाद मेरे दैनंदिन मे शामिल हो गई थी। हाँ, पिता की कमी, घर से दूरी सबका खामियाजा मैंने राजेन्द्र जी से ही चाहा। अपनी पहली मुलाकात से ही।  पिता जैसी ठहाकेदार हंसी, पाईप, किताबें, उनमें मुझे पापा का चेहरा दिखाई पड़ता। अगर मायके का सम्बन्ध स्त्रियों के अधिकार भाव, बचपने और खुल कर जीने से होता है तो मैं कह सकती हूं ‘हंस’ मेरा दूसरा मायका था।


मैंने राजेन्द्रजी से एक बार कहा था कि आपके कथित स्त्री विमर्श और आपके निजी जीवन के बीच एक लंबी खाई दिखती है। जिन अंतर्विरोधों का जिक्र आप दूसरे लेखकों के बारे में करते रहे हैं क्या आप खुद भी उनके शिकार नहीं?' उन्होंने हमेशा की तरह हंसते हुये ही जवाब दिया था- “स्त्री विमर्श को लेकर मैं जो कुछ भी सोचता हूँ, व्यवहार में भी ठीक वही उतार पाऊँ ऐसा हर समय संभव नहीं हो पाता। हां, मैं चाहता हूँ कि वैसा हो। मैं अपने इस अंतर्विरोध से संतुष्ट हूँ ऐसा नहीं है... मैं बार-बार खुद को संशोधित-परिवर्धित करने की मानसिक प्रक्रिया से गुजरता हूं। जिसे तुम सिर्फ स्त्री विमर्श के संदर्भ में देख रही हो, वह मेरे लिए अपने आप को पुन: संयोजित करने का प्रशिक्षण भी है। मैं जो हूँ और जो हो सकता हूँ या होना चाहता हूँ उस बीच की खाई को हमेशा कम करने की कोशिश करता रहा हूँ ।“ मैंने उनके व्यवहार में भी यही देखा था।


यह मेरी ‘उलटबांसी’ कहानी से जुड़ा प्रकरण है। पहली दृष्टि में तो राजेन्द्र जी ने इसे बकवास करार दिया... 

'बूढ़ी मां अचानक शादी कैसे कर सकती है, कौन मिल जायेगा उसे?'

'वह बूढ़ी नहीं है, प्रौढ़ा है. और गर पुरुषों को मिल सकती है कोई, किसी भी उम्र में, तो फिर औरत को क्यों नहीं?'

'होने को तो कुछ भी हो सकता है... वह कौन है.. कहां मिला, कैसे मिला कुछ भी नहीं...। '

'मुझे उसकी जरूरत नहीं लगती.. कहानी मां और बेटी के बदलते संबंधों की है...किसी तीसरे पक्ष की नहीं। सो उसके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। अपूर्वा के भीतर की स्त्री अपनी मां के निर्णय में उसके साथ है, लेकिन उसके भीतर की बेटी अपने पिता की जगह पर कैसे किसी और को देख कर सहज रह सकती है? इसलिये बेहतर है वह अपनी मां के नये पति के बारे में ज्यादा दिलचस्पी न दिखाये।


राजेन्द्र जी ने दो–चार  दिनों बाद मुझसे पूछा था-'तेरी उस कहानी का क्या हुआ?'

'टाईप हो रही है।'

'फिर? '

'फिर... दूँगी कहीं ... '

'पहले मुझे पढ़ने के लिए देना।'

'लेकिन आप तो पढ़ चुके है...'

'मैं  फिर से पढ़ूँगा, कोई दिक्कत? '

'नहीं...'


और इस बार उन्हें यह कहानी पसंद आ गई थी। उनके भीतर बसे आदिम पुरुष के लिए भले ही एक माँ का उस उम्र  में लिया गया पुनर्विवाह का निर्णय अग्राह्य रहा हो पर उन्होंने अपने भीतर के संस्कारों और अंतर्विरोधों से लड़ते हुए एक स्त्री के पक्ष, तर्क और अनुभूतियों को समझने की चेष्टा की थी।


मुझे अब लगता है कि `होना/सोना...’ को  भी उस भाषा-शैली में लिखने के लिए सबसे पहली लड़ाई उन्हें खुद से ही लड़नी पड़ी होगी। वह लेख एक तरह से खुद को खोजने, चीन्हने की प्रक्रिया का ही एक अहम हिस्सा था। अपने भीतर के अंतर्विरोधों, आदिम पुरुष की आंतरिक बनावट और उसकी निर्मम मर्दाना भाषा-सोच की शिनाख्त। तब इस लेख की भाषा-शैली और कहन के लहजे पर भी बहुत सवाल उठे थे। पर शायद ही वह कोई स्त्री होगी जो कह सके कि उसने इस भाषा, ऐसी दृष्टि को कभी नहीं सुना-सहा; उससे वाकिफ नहीं हुई। भीतर और बाहर के द्वंद्व से लड़-जूझकर आग को आग और पानी को पानी कहने का उनका यही अंदाज़ उन्हें भीड़ में अलग करता था। 


कुछ भी नया करने, सीखने-समझने  के लिए  वो हमेशा तत्पर होते थे। सिखाने के लिए भी।  प्रूफ देखने में मुझे हमेशा से ऊब होती है, तब तो और भी होती थी। वही कहानी में डूब जाने, उसके साथ बह ल्रेने की आदत... मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि किसी रचना से ऐसे तटस्थ होकर कैसे गुजरा जा सकता है। मैं  उनसे भी कहती मुझसे नहीं होता यह सब। बहुत बोरिंग लगता है। तो कहते - 'कल को जब तेरी खुद की किताबें आएंगी फिर...शायद वो हमें आगामी दिनों के लिए तैयार कर रहे थे। संघर्ष के उन दिनों में किसी भी तरह हमें अपने पैरों पर खड़े  देखना चाहते थे और इसके लिए वो हरसंभव यत्त्न भी करते थे। 


राजेंद्र जी लोगों पर भरोसा बहुत जल्दी कर लेते थे। बच्चों की सी मासूमियत और सरल निश्छलता  के साथ...यहाँ उनका तर्कबुद्धि, विवेचनशक्ति किसी से कोई मतलब नहीं था। वे कल  के आए किसी पर उतना ही भरोसा  कर सकते थे जितना कि बरसों के किसी पुराने मित्र पर,  इस कारण उन्हे झेलना भी बहुत पड़ा। जहां उनके इस लगाव के कारण उनके अंध समर्थकों की कमी नहीं थी, वहीं ऐसे लोगों कि भी नहीं जो तनिक से मतभेद और अपने छोटे–छोटे स्वार्थों की पूर्ति होते न देख उनसे दूर जा खड़े होते थे। कहने की बात नहीं कि उनके इस हद तक टूटने और कुछ हदतक उनकी मृत्यु के कारण भी ऐसे ही संबंध रहे। उन्हें यह एहसास था कि वो अकेले पड़ते जा रहे हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर  उनके लिए कही जानेवाली अभद्र और अशालीन बातें... उनके आसपास कभी भी होने वाली हर महिला से उनके संबंध जोड़कर देखे  जा रहे थे, यह भी कहा जा रहा था कि उनके आसपास की औरतें सुरक्षित नहीं। मुझे इस बात का अफसोस है कि मैं उस वक़्त  चुप रही, मैंने इसका प्रतिवाद नहीं किया... मुझे यह कहना चाहिए था कि हम उनके साथ बहुत महफूज थे, उतने जितने कि यह सबकुछ लिखने-कहने वाले लोगो के साथ नहीं हो सकते थे। यह सिर्फ मेरा अनुभव  नहीं इसकी तसदीक अर्चना जी, वीणा जी से लेकर बहुत से लोगो से हो सकती थी... 


इसी संबंध में मुझे एक वाकया याद आ रहा है- हंस के 2003-04 के किसी अंक में कृष्णा अग्निहोत्री की एक आत्मकथात्मक कहानी आई थी- ‘ये क्या जगह है दोस्तों’ उस कहानी में उन्होने सिर्फ पत्रों के द्वारा ही किसी व्यक्ति से अपने आत्मिक लगाव और फिर उसके रूक्ष व्यवहार से अपने आहत होने की मार्मिक वेदना को बड़ी तरलता और सहजता से लिखा था। पत्रिका के उसी अंक में मेरी कहानी ‘भय’ भी आई थी। मुझे उनकी कहानी पढ़ते ही उस व्यक्ति की शिनाख्त में तनिक भी देर नहीं हुई, कारण कि  ठीक-ठीक वही बातें और उसी तरह के पत्र एक जनाब मुझे भी लिखते रहे थे। मुझे उनकी मंशा साफ समझ में आ गयी थी। मैंने एक दिन राजेंद्र जी से कहा कि जब मुझ जैसी बेवकूफ लड़की को भी उन सज्जन की हरकतें समझ मे आ रही थीं तो कृष्णा जी तो अनुभवी ठहरीं, उन्हे क्यो नहीं समझ में आया कि ... राजेंद्र जी ने कहा था कि तुम इस बात को नहीं समझ पाओगी, तुम्हारे साथ परिवार है। पर जब आदमी की उम्र होने लगती है, जब वह अकेला हो चलता है तब उम्मीद और प्यार के हरेक झूठे-सच्चे तन्तु को भी सम्भाल कर रखना चाहता है। उसी में उलझकर थोड़ा और जी लेना भी...


विद्यानिधि, मैं, संगीता, बलवंत और बाद में गीताश्री ने भी उनके लेखों के संकलन का काम किया। मैं, संगीता, मुक्ता हम सब अपने पीछे अपना बहुत कुछ छोड़ आए थे और दिल्ली में हमारे लिए रिश्ते और घर का मतलब सिर्फ राजेन्द्रजी ही थे।  वे हमारे लिए कल्पवृक्ष की तरह थे, हम सब ने उनमें जो देखा, जो खोजा वे हमारे लिए वही थे। वे अपने लिये तो जैसे थे ही नहीं। 


राजेश रंजन की जनसत्ता की नौकरी छूटने के बाद संगीता के लिए अपने पास कुछ काम देखना हो या ऐसी कोई और बात, वे ये सब ऐसे करते थे जैसे हमें नहीं उन्हें हमारी जरूरत हो। मैंने मुक्ता और मनोज को अपनी छोटी-छोटी शिकायतें उनसे करते देखा है- मसलन मुझे यह सिगरेट नहीं पीने देती। सारे खुले पैसे जेब से निकाल लेती है... आदि-आदि।  मैं भी अपनी सारी शिकायतें लेकर वहीं पहुँचती थी। अपनी आर्चीज़ की नौकरी के वक़्त किसी न किसी बहाने आधे दिन की छुट्टी लेकर शनिवार को भागकर नारायणा से दरियागंज, 2/36 अंसारी रोड ; हंस के दफ्तर उनसे मिलने के लिए पहुँचना... यूं भी हमारी  गृहस्थी के वे नए-नए दिन थे और हमें  भी किसी फ्रैड, फिलॉस्फर, गाइड की जरूरत थी और कहने कि बात नहीं कि...


उन दिनों उनके लंचबॉक्स मे आलू की एक सब्जी जरूर होती थी  पर इसके साथ-साथ जो दूसरी बात जरूर होती वह यह कि हंस के दफ्तर में उन दिनों हर आने-जानेवाले से मेरे आलू प्रेम की चर्चा ।अर्चना जी ने उनदिनों अपने लिखे एक लेख `तोते की जान ` मे इसका जिक्र भी किया है। हमसब  को यह गुमान था कि राजेंद्र जी हमसे बहुत स्नेह करते हैं और हमें ही नहीं उनसे मिलने वाले हरेक इंसान को यह गुमान होता होगा। उनदिनों मैं उनसे कहा करती थी कि `लड़की जिसने इन्जन  ड्राइवर से प्यार किया `[ई. हरिहरन की एक कहानी जिसका हिन्दी अनुवाद उनदिनों हंस मे आया था] की लड़की मैं हूँ और पादरी वो।  सहजीवन के उन्हीं दिनों में जब किन्ही कारणवश मैं और राकेश कुछ दिन अलग रहने का निर्णय लेना चाहते थे और मेरे फ्रीलान्सर होने की वजह से मुझे वर्किंग वुमेन हॉस्टल मिलने में भी परेशानी थी और उसका खर्च वहन कर पाने में भी , तब राजेंद्र जी ने यह सुझाव दिया था कि मैं मन्नू जी के साथ रह जाऊ और वो जो भी डिक्टेट करें मैं लिख दिया करूँ। मन्नू जी की आँखों मे उन दिनों परेशानी थी, उनकी  आत्मकथा का एक खंड उन्हीं दिनों छपा था और काफी चर्चित भी हुआ था। हालांकि यह संभव नहीं हो सका था पर मन्नू जी से मिलने की मेरी हार्दिक ईच्छा इसी कारण पूरी हो सकी थी।  राजेंद्र जी सबके लिया कितना सोचते थे यह भी उस दिन समझ सकी थीं ।


पाखी के विशेषांक मे उनपर लिखे गए लेख को लेकर मैं सहमी हुई थी, पता नहीं वो इसे किस तरह लें। कारण कि अपनी अपनी छोटी–छोटी शिकायतें, अपने छोटे–मोटे दुख; जो कि कभी न कभी हर संबंध में आते ही आते हैं और जिनका सम्बंध कहीं न कहीं हमारी असीम ईच्छाओं से होता है, मैंने उसमें वह सब दर्ज कर डाला था। पर उसके बाद जब मैं अपने पहले उपन्यास के लोकार्पण के लिए दिल्ली आई और  उनसे मिली तो वे उसी पुराने उत्साह और गर्मजोशी के साथ मिले। हमें हमेशा की तरह घर पर भी बुलाया। खाना बनवाकर रखा- गरम-गरम आलू की सब्जी और पूरिया। मुझे हाल में छपी कहानी ‘बावड़ी’ के लिए चेक दिया और सोनसी को चॉकलेट और पेन –'इससे नानाजी को चिट्ठी लिखना।' उन्होंने तीन साल की‌ उस बच्ची की कवितायें भी सुनी और उसी प्यार से तंबाकू न लेने की उसकी हिदायतें भी। तब यह कहाँ पता था की यह हमारी आखिरी मुलाक़ात है ...    

                              

 इन दिनों से पहले  ककि वह दौर जो बहुत सारी अनिश्चितताओं और मुश्किलों से भरा होता था. जब निश्चित आय का स्रोत नहीं था। हां लिखने और छपने के लिये जगहें थीं और काम भी इतना कि सारे असाइन्मेंट पूरे कर लिये जायें तो रहने-खाने की दिक्कत न हो। पर फ्री-लांसिग के पारिश्रमिक के चेकों के आने का कोई नियत समय तो होता नहीं, जल्दी भी आये तो तीन महीने तो लग ही जाते थे।  उस पूरे दौर में राजेन्द्र जी का साथ मेरे लिये इन अर्थों में भी एक बड़ा संबल था कि उस ढाई-तीन वर्षों के कठिन काल-खंड में उन्होंने मुझे किसी न किसी ऐसे प्रोजेक्ट में लगातार शामिल रखा जिससे थोड़ी बहुत ही सही मुझे नियमित आर्थिक आमदनी भी होती रही। हिन्दी अकादमी के  उस न आ सकनेवाले 'बीसबीं शताब्दी की कहानियां' के अलावे राजेन्द्र जी के साक्षात्कार, पत्रों और लेखों की किताबों का संयोजन-संपादन उसी समयावधि की उपलब्धियां हैं।

               

सिर्फ मैं ही नहीं, मेरी जानकारी में ऐसी मदद उन्होंने कई लोगों की की थी। वह मटियानी जी की की अन्तिम कहानी थी जो हंस में छपी थी। नाम शायद 'उपरान्त' है। उसके छपने की भी एक अलग कहानी है। मटियानी जी काफी दिनों से अस्वस्थ थे, यह बात पूरी हिन्दी-पट्टी को पता था। न उनकी दिमागी हालत ठीक थी न आर्थिक स्थिति। सिर में अनवरत दर्द रहने की शिकायत उन्हें उन दिनों लगातार रहती थी। ऐसे में कही जाते वक़्त राजेंद्र जी रास्ता बदलकर उनसे मिलने चले गए थे और उन्हें यह कहकर कुछ रुपये, अगर मुझे ठीक याद है तो शायद 10 हजार; थमा आये थे कि यह तुम्हारी कहानी का अग्रिम पारिश्रमिक है। तुम मुझे जल्दी से अपनी कहानी लिखकर भेजो...  न लिखने के अपने तमाम बहाने रहने दो। मटियानी जी ने भी अपनी उसी मानसिक स्थिति में जल्दी से जल्दी कहानी पूरी करके भेजी थी। यह सारा वाकया मुझे कहानी के साथ आई मटियानी जी की चिट्ठी से ही मालूम हुआ था, जिसमें उन्होने राजेंद्र जी के इस आकस्मिक  आगमन और अचंभित कर देने वाले स्वभाव की चर्चा काफी गदगद होकर की गयी थी। चूकि उन दिनों चिट्ठियों के संग्रह पर काम करने के कारण चिठ्ठिया मैं ही  संभाल रही थी इसलिए यह वाकया ज्यों-का-त्यों याद है अभी भी...


मेरी शुरुआती कहानियां वे यह कहकर लौटाते रहे कि `इसमें तू कहाँ है’।  उनके संकेत शायद मैं नहीं समझ पा रही थी। तब बाद में उन्होने स्पष्ट शब्दों में कहा कि `तू अपने अनुभव लिखने से क्यों हिचक रही है? परिवार, समाज और आसपास की बातें तथा खुद अपने भीतर के द्वंद्व जैसे विषयों पर हमारे यहां कहानियाँ बहुत कम है।‘  उनका सूक्ष्म इशारा मेरे सहजीवन की तरफ था। यह उनके कहे का ही नतीजा था कि मैं अपने भीतर के भय से जूझकर `मेरी  नाप के कपड़े’, `भय’ और `आशियाना’ लिख सकी। मैं लड़ सकी इस भय से कि मैं पहचान ली जाऊँगी। यदि उन्होने वो कहानियाँ लौटाई न होती तो पता नहीं कब मैं अपने इस भय से मुक्ति पाती। 


चार वर्षों के सहजीवन के बाद जब मैंने और राकेश ने शादी का निर्णय लिया तो राजेन्द्रजी ने मुझे यह कहा था कि- `अच्छी तरह सोच विचार कर निर्णय लेना। इसलिए तो बिलकुल भी नहीं कि चार साल तक साथ रहने के बाद अलग हुई तो लोग क्या कहेंगे?‘ शादी के ठीक दो दिन पहले उनकी यह बात जाहिर है मुझे तब उतनी अच्छी नहीं लगी थी पर अब तटस्थ भाव से सोचूँ तो उसके निहितार्थ समझ में आते है और हमारे लिए उनकी चिंता भी...


अंतिम दिनों में कभी राकेश कि छुट्टी पर बात जा अटकती, कभी सोनसी के स्कूल और क्लास पर...वे फिर भी चाहे जन्मदिन हो या हंस की गोष्ठी  यही कहते रहे - 'तू आ जा, उस साले को छुट्टी नहीं है तो बेटी को लेकर आजा।' आज दुख है तो सिर्फ यह है कि वे बार-बार कहते रहे पर मैं उनसे मिलने नहीं जा सकी। पूरे डेढ़ साल। इतने दिन तो कभी नहीं बीते थे उनसे मिले बगैर। 


और फिर एक दिन ...


 दिल्ली जाने और उनसे मिलने की वह बेचैनी भी अब कभी नहीं होगी। उनके जाने के साथ जैसे भीतर बहुत कुछ मरा है... टूटा है किरिच-किरिच। मैं पोली हो गई हूँ जैसे ....

3 सितंबर 2023

हो पिता तो - शिवानन्द सिंह 'सहयोगी', मेरठ 03.09.2023

 


हो पिता तो, 

आप भी तो, 

पिता के जैसे रहो |


हो गए इतने बड़े, पर  

पहन कच्छी घूमते हो,

हो न पीते, बात सच, पर    

पागलों-सा झूमते हो,

आपका घर

है, सही, मत  

मन करे वैसे रहो |


दंग आँगन रह गया है,

आपकी इन हरकतों से,

हर समय कुछ बड़बड़ाना,

राख लाना मरघटों से,

माँ बड़ी है,

कुछ न कहती,

'आप मत ऐसे रहो' |


है रसोई में कहाँ क्या? 

देखते, मन हँस रहा है,

आपका हर काम जैसे

साँप ज़हरी डँस रहा है,  

जिस तरह, सब 

रह रहे हैं,

आप भी तैसे रहो |



पहाड़ सा स्वाभिमान डॉ. गुणशेखर

 
3बजे अपराह्न,01सितंबर23,शुक्रवार,कासा ब्लैंका, कृष्णा कावेरी, यमुना नगर,अंधेरी वेस्ट,मुंबई।

10 मार्च 2022

इंदु संचेतना: व्यंग्य विशेषांक खंड 2 वर्ष 2022


 Google Play Book में भी उपलब्ध है । इस लिंक से इसे देखा जा सकता है :

https://play.google.com/store/books/details?id=-3hjEAAAQBAJ

अंक में|||

 संपादकीय-गिरगिटई/5

मदन गुप्ता सपाटू की व्यंग्य रचनाएँ/8

फूड इंस्पेक्टर की दावत-हनुमान मुक्त/13

रचना कब छपेगी-सुधीर/15

ऑनलाइन महाकवि सम्मेलन के साइड इफ़ेक्ट-अनिता यादव(व्यंग्यकार)/17

हर सिक्के के दो पहलू होते हैं !!!- बिनय सिंह/19

खजूरे का हिंदी साहित्य-अनिरूद्ध कुमार/21

एक थी माया-विजय कुमार/24

सुबह से शाम-तुलसी देवी तिवारी/35

चाय गरम टन्न गिलास/आकांक्षा सक्सेना/42

हर-हर स्टैचू, घर-घर स्टैचूदीपक गोस्वामी/48

परदेसिया-बिनय कुमार शुक्ल/51

विज्ञान कथा-फैसला-सुशांत सुप्रिय/54

टू इन वन--सुशांत सुप्रिय/57

कविता

-संजय वर्मा 'दृष्टि' की कविताएँ/61

डॉ0 चंद्रकांत तिवारी की कविताएँ/62

बहनों की शुभकामना- डॉ0 सत्यवान सौरभ/65

नीरज त्यागी की कविताएँ/66

माधव राठौर की कविताएँ/69

Pkkgs tSlk naxk djys  MkW0 ujs’k ^^lkxj** 71

नई रणनीति- डॉ जेबा राशिद/72

गजल- पीताम्बर दास सराफ 'रंक'/73

कहानी-

मिट्टी-प्रशांत बेबार/74

हाय तौबा-डॉ. पिंकी कुमारी बागमार/80

 

आलेख

मेरे अनुभव और अमेरिका में हिंदी की दशा-आस्था नवल/84

व्यंग्य और समाज - डॉ. जेबा राशिद/90

स्वस्थ्य लोकतंत्र की नींव है व्यंग्य-सलिल सरोज/91

कर्नाटक की मुख्य जनजातियाँ और रहन-सहन- सपना मांगलिक/96

नाटक-दबिस्तान-ए-सियासत राकिम दिनेश चंद्र पुरोहित/105

शोध आलेख-

दुष्यंत कुमार के गजलों में व्यंग्य के विविध स्वर-पूनम देवी/128

पुस्तक समीक्षा

अगरबत्ती:  सामंती सोच एवं जातिगत पूर्वाग्रहों के बीहड़ से बाहर निकलने हेतु सूत्र की तलाश...-कुणाल कुमार वर्मा/137

पुस्तक चर्चा

भारत माता की छाती पर हावी नौकरशाही की व्यंग्य गाथा : देश के हित में-डॉ. समीर प्रजापति/140

हलचल/147

रचनाकारों के पते/148

13 मार्च 2020

इंदु संचेतना- अनूदित रचना विशेषांक


इंदु संचेतना- अनूदित रचना विशेषांक के लिए इस लिंक पर क्लिक करें ।


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इंदु संचेतना : व्यंग्य विशेषांक प्रथम खण्ड



इस अंक के लिए अत्यधिक रचनाएँ प्राप्त होने के कारण व्यंग्य विशेषांक को दो खंडों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया है । द्वितीय खण्ड भी शीघ्र ही आपके पास पहुंचेगी । पत्रिका को डाउनलोड करने के लिए इस लिंक पर जाएँ : 

इस अंक की रचनाएँ 

  1. संपादक की कलम से…व्यंग्य के बाईपास से गुजरते हुए-5/
  2. तुम्हारी याद में-(सुशील सिद्धार्थ को याद करते हुए )-डॉ गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुण शेखर’-8
  3. श्रद्धांजलि : सुशील सिद्धार्थ- विवेक रंजन श्रीवास्तव/9   
  4. सुशील सिद्धार्थ ...कुछ याद रहा ,कुछ भूल गयी !- विजय पुष्पम-11
  5. सुशील सिद्धार्थ और उनकी व्यंग्य रचनाए. पवनेन्द्र  ठकुराठी 'पवन'-14  
  6. चौराहा,बस और तीर्थयात्री - सुशील सिद्धार्थ-17  
  7. कहानी –नपनी- दूधनाथ सिंह-21
  8. व्यंग्य काव्य : जरूरत और समय- भुवनेश्वर उपाध्याय-33/
  9. "साहित्य, सिनेमा और कर्मशील व्यक्तित्व: हिंदी भाषा के निकष "-डॉ चंद्रकांत तिवारी-38
  10. क्या खोया क्या पाया,गणतंत्र के अड़सठ वर्षों  में- हेम चन्द्र सकलानी 41  
  11. सिक्के की मौत- बिनय कुमार शुक्ल-44
  12. कुछ कहावतों का चीड़-फाड़- बिक्रम कुमार साव-47   
  13. वाह री दुनिया’(पार्ट-2, 3)- अपर्णा घोष -49  
14. हास्य व्यंग्य:पेर लीं पार लीं मध नियर गाड़ लीं- जनकदेव जनक/-59
  1. सात जन्मों तक इनकमिंग फ्री. कृष्ण कुमार यादव/64   
  2. आई एस आई मार्क साहित्य भूषण . डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव/67  
  3. अर्थशास्त्र का कुल्फ़ी सूत्र- कमलानाथ-69  
  4. आपके जूते उनके सगे. डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव/72   
  5. पहली नजर में प्यार- अरुण अर्णव खरे -73  
  6. लाइक दो, लाइक लो -... अरुण अर्णव खरे /75  
  7. ‘अंगूर खट्टे नहीं थे’--इन्द्रजीत कौर-77  
  8. चुनाव-मैदान में बंदूकसिंह - सुरेश कांत/80  
  9. अथातो दुष्कर्म जिज्ञासा (बलात्कार:एक असांस्कृतिक अनुशीलन )-यशवंत कोठारी-85
  10. ड्रैस कोड--मदन गुप्ता सपाटू/88  
  11. कोहिनूर-चेतन भाटी -91
  12. स्त्रियों का पुरुषीकरण- दीपक शर्मा-93  
  13. आशिक कातिलाना- अभिषेक अवस्थी   -95  
  14. फेसबुक के वरिष्ठजन- अमित शर्मा -97  
  15. आयो हिन्दी का त्योहार- सुदर्शन वशिष्ठ-99  
  16. कसौटी जन प्रतिनिधि की --मृदुल कश्यप -102   
  17. साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज ...!!  - अलंकार रस्तोगी -105   
  18. साहित्यकार बनिये बनिए - डॉ नीरज सुधांशु -107
  19. गरीब हटाओ : देश बचाओ - डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश सिंह -110   
  20. लघु कथा
  21. क्रांतिकारी की कथा-हरिशंकर परसाई -116   
  22. आम लेखक के कंधों पर लटका वेताल - बी.एल.आच्छा -118  
  23. क्या से क्या हो गया...?- अमित पुरोहित [C.A.]-120  
  24. कविता : बबूल के पेड़ पर सूरज - शिवानंद सहयोगी-123  
  25. आँसू- डॉ ज़ेबा रशीद -126
  26. जुलूस निकाले हैं चौराहे-चौराहे?- डॉ गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’/127
  27. अमित खरे की कवितायें-129
  28. अब भी पेड़ लगाओ- अनुपम नाहर -130
  29. कौशल किशोर की कविताए.131
  30. बदलाव . डॉ0 नरेश  कुमार ''सागर''.133 
  31. केवल शरण की कविताएँ – 134
  32. गजल महेश कुमार कुलदीप 'माही'-135
  33. शोध पत्र
  34. प्रेमचंद की कहानियों में हास्य व्यंग्य-कृष्णवीर सिंह सिकरवार-136
  35. रामायण के अनछुये पहलू -डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव.143
50. केदारनाथ सिंह और उनकी कविता . पवनेद्रा ठकुराठी 'पवन' .155
51. पुस्तक समीक्षा -158   
52. दूर देश की पाती -160
53. हमारे रचनाकारों के पते -17

संपादक की कलम से…

व्यंग्य के बाईपास से गुजरते हुए
डॉ०.गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
       'ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर' की आँ पर शान चढ़ाई तलवार-सी चमचमाती डराती भाषा। उसपर से व्यंजना की तीखी और पैनी नोक।  बड़ी धार होती है व्यंग्य में।  बड़े मज़े से काटता है ये। अगर इस्लाम धर्म के अनुयाइयों को कोई आपत्ति न हो तो इसे मैं 'आयतें पढ़-पढ़ कर काटना' कहूँगा।

           व्यंग्य की भाषा ही उसकी जान होती है। यदि कोई व्यंग्यकार मँजा हुआ होता है तो उसके व्यंग्य को कविता, कहानी या उपन्यास की देह(विधा) में होते हुए भी देह(कथ्य) को ढोना नहीं पड़ता। व्यंग्य की भाषा चिकोटी काटने से लेकर मिर्ची लगाने तक का काम करती है। कथ्य को  तो वह बस पुश करके छोड़ देती है। यहाँ कथ्य उतना महत्त्वपूर्ण नहीं होता जितनी की कथन भंगिमा। इस अवसर पर अनायास ही अमृत लाल नागर के ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की याद आ गई। उसकी नायिका विशुद्ध ब्राह्मणी है लेकिन मेहतर से ब्याह कर लेने के बाद जब ससुराल जाती है तो उसे नानी याद आ जाती है। उसका प्यार और  दीवानगी सब हिरन हो जाते हैं। ठीक-ठीक तो याद नहीं लेकिन शायद जब उसकी सास आँगन में पाखाना कर उससे वह उठाने के लिए कहती है। ब्राह्मणी होने के कारण वह अपने को उस काम के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं कर पाती है। इसके लिए  उसे मार पड़ती है। उस सन्दर्भ में उसका दर्द से भरकर  ”सच में मैं मार-मार के भंगिन बना दी गई थी। कहना, अपनी विदग्धता के कारण ‘मार-मार के भंगी बनाना’ जैसे मूल मुहावरे  से भी अधिक असरकारी लगता है।  वह इसलिए भी कि उसका वहाँ पूरी विदग्धता के साथ प्रयोग किया गया है । यह विदग्धता किसी भी विधा में आ सकती है ।सूर अपने पदों में यह कर पाने में सक्षम रहे हैं इसीलिए तो आज कवि और कथाकार जिसे यह विदग्धता प्राप्त है, केवल व्यंग्यकार कहलाने में जो सुख अनुभव करता है, वह सुख उसे कवि या कहानीकार कहलाने में नहीं मिलता।

     डॉ. महेंद्र अग्रवाल का एक प्रयोग वह शहर की नाक जैसे थे मगर कब कहां छिनकी गई, आज कोई नहीं जानता। किसी के  वीभत्स स्तर तक पहुंचे हुए बनावटी वैभव का इतना प्रभावशाली चित्र खींचती है कि वर्णित व्यक्ति का मूल चरित्र स्वतः उपस्थित हो जाता है। उसके लिए अतिरिक्त स्केच नहीं बनाने पड़ते। यही विदग्धता है और यह विदग्धता व्यंग्यकार में भरपूर होती है। व्यंग्यकार बहुत चौकन्ना और चुस्त-दुरुस्त होता है। शिथिलता रह जाने पर उसका तंज बेमानी हो जाता है।
    आम बोलचाल की  भाषा में व्यंग्य अधिक प्रवाह के साथ बहते हुए देखा जा सकता है। उचित है या अनुचित इसपर नैतिक भाषण देने के बजाय उसे पाठकों के विवेक पर छोड़ व्यंग्यकार आगे बढ़ जाता है। व्यंग्यकार उपदेशक नहीं होता जो उपदेश देने में समय जाया करे। वह तो कुछ भी गलत देखते ही चिकोटी काट लेता है। इसके बुरे-भले परिणाम की उसे परवाह बिलकुल नहीं होती। वह कायर नहीं साहसी होता है। शुद्ध चरित्र का और ईमानदार होता है। वह साबुन की भूमिका में रहता है। हिंदी में कबीर में यह साबुनपन(व्यंग्यपन) अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ विद्यमान है। इसे उन्होँने निन्दा के निकट माना है-

"निंदक नियरे राखिए।आंगन कुटी छ्वाय।
बिंन साबुन पानी बिना,निर्मल करे सुभाय।।"

       संवेदन हीन होते जा रहे समाज के बीच संवेदना का प्रदर्शन बढ़ गया है। शब्द केवल जिह्वा और मस्तिष्क तक ही सीमित रह गए हैं। ह्रदय तक उनकी पहुँच नहीं होने से वे बनावटी हो गए हैं। इसी का लाभ उठाकर नेतागण लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने में सफल हो गए।  व्यंग्य हमेशा दुर्बल के पक्ष में खड़ा होता है।लोकतंत्र में व्यंग्य विपक्ष में बैठकर अपना राजनीति में लोक हित बचाए रखता है। मूल्य बोध का प्रशिक्षण देता है। उसका प्रशिक्षण साहित्य और राजनोंती दोनों धर्मों के एक साथ निर्वाह में सफल रहता है। इस उदाहरण से जाना जा सकता है कि कितने बारीक रेशों के ताने-बाने में मूल्यबोध इसमें अन्तर्निहित  रहता है, “यह भीड़ की महिमा है जो रंक को राजा बना देती है। भीड़ के कारण ही बड़े राजा का मुकुट उनके चरणों की धूल से सुशोभित होता है। भीड़ में आमजन धूल धूसरित होता है और श्रेष्ठ जन उसी धूल-माटी से खनन माफिया के नये राज्य में प्रवेश कर जाते हैं । स्मरणीय और उल्लेखनीय यह है कि राज्याभिषेक में भीड़ की ज़रुरत नहीं होती और दरबार में सदैव दरबारी ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं,आम आदमीनहीं।
        हमारे तथाकथित सांस्कृतिक समाज की असली पोल खुल चुकी है। उसकी रसिक मिजाजी ने स्त्री जीवन  को कितने बड़े संकट के सामने ला खड़ा  कर दिया है। उसकी भीतरी रसिक मिजाजी का जो  सुंदर चित्र एक व्यंग्यकार  खींच सकता है, वह चित्रकार भी नहीं। उसकी एक बानगी प्रस्तुत है। इसी से व्यंग्यकार की  परिलक्षित भाषा और दृष्टि के साथ-साथ इन दोनों में अंतर्व्याप्त व्यंजना की गुणवत्ता सही-सही मापी या भाँपी  जा सकती है, सनातन काल से जब जब, जहां जहां असामाजिक, अनैतिक, असंवैधानिक शारीरिक संबंधों का शगूफ़ा उठा वहां-वहां गली मुहल्ले क्या पूरे शहर भर का आदमी खुर्दबीन लेकर ढूंढने लगता है कि कौन, कहां, किससे लगा है? पराई औरतों के देह दर्शन के शौकीन लोगों ने ब्रिटिश राजकुमारों को हनीमून भी चैन से न मनाने दिया। ऐसी ऐसी दूरबीनें ढूंढ लाये जो दो चार किलोमीटर दूर से भी चौकस तस्वीरें खींच लें।  जैसे ब्रह्माण्ड में नये ग्रह की खोज का जिम्मा इन्हीं पर हो। इधर खोज हुई उधर न्यूज चैनलों ने वीडियो राइट्स हाथों हाथ लिये। फोटोग्राफ के लिए तो न्यूजपेपर और मैग्जीन वाले वैसे भी दौड़ धूप करते रहते हैं। पुराने लोग इसी को कहते थे आम के आम गुठलियों के दाम।
         समाचारों की बाढ़ यानी सूचना क्रान्ति के युग में सारी दुनिया में थू-थू हो रही है। हमारे न्यूज़ चैनल अलंकारों की भाषा में कविता नहीं समाचार परोस रहे है। राजा नहीं रहे तो क्या? ये प्रजातंत्र के भांड़ बनकर समाचारों से  ही प्रजा का मनोरंजन कर रहे हैं। यह ध्यान दिए बिना कि देश में कहीं कुछ अच्छा हो रहा है केवल भ्रष्टाचार और बलात्कार की सूचनाएँ परोसी जा रही हैं। दुनिया की सारी औरतों को दुनिया भर के राक्षस केवल भारत में ही दिखने लगे हैं। चीन में रहते हुए हर बालिका से बात करते हुए  समाचार परोसने की इस बलात्कारी प्रवृत्ति से ज़रूर दो-चार होना पड़ा है।  समाचार अब सूचना के लिए नहीं मनोरंजन के लिए लिखे जा रहे हैं। उन्हें कभी पुरुष तो कभी किसी महिला के द्वारा लिपस्टिक लगी होठों के बीच लिप लाक किया जा रहा है। समाचार की इस बदलती चारित्रिक निष्ठा और बाज़ारू शैली का बहुत सुंदर वर्णन डॉ महेंद्र  अग्रवाल कंना और ऊदबिलाव’ शीर्षक व्यंग्य में देखा जा सकता है-जबसे देश आज़ाद हुआ है निंदकों की पौबारह हो गई हैसब छुट्टे सांड़ की तरह घूम रहे हैं कुछ निंदा के अभ्यास के लिये पत्रकार बन गये जो बचे वे टी.वी.   चैनलों के रिपोर्टर और एंकर बन गयेनिंदा रस की अति हुई तो उस पर नियंत्रण की ज़रूरत आन पड़ी. . . . .आलोचना का आविष्कार भी आंखें फैला फैलाकर ऐसे ही लोगों ने किया होगा।
     पाकिस्तान की विदेश मंत्री की भारत यात्रा पर लिखा गया व्यंग्य पुरुष मानसिकता का बहुत सुंदर मनोविश्लेषण करता है। अगर चाहें तो इससे अपराधों की वृत्ति को नैदानिक समाधन दे सकते हैं पड़ोसी देश की खूबसूरत विदेश मंत्री जब हमारे यहां आईं तो हमारे विदेश मंत्री के साथ-साथ प्रशासनिक सचिवों और मीडिया के लोगों  को भी दीवाना बना गईं। उन्होंने जिस-जिस से हाथ मिलाया उनकी हथेलियां तो क्या कुहनी और कंधों के जोड़ भी याद करते हैं। यह व्यंग्यकार  की अपनी क्षमता ही कही जाएगी कि जो प्रेमिल अहसास अब तक हथेलियों तक सीमित रहा करता था उसे उसने कुहनी और कन्धों तक पहुँचा दिया है।                              


     व्यंग्य के बाईपास से गुजरते हुए बिना किसी लाग-लपेट के यह कहा जा सकता है कि समकालीन व्यंग्य बीसवीं सदी के दो महान व्यंग्यकारों हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जी के राजपथों के बीच से जो बाइपास निकलता है उसपर तेज़ भाग रहा है।




तुम्हारी याद में
(सुशील सिद्धार्थ को याद करते हुए )



जैसे शहद  को चाहता है  भालू
ब्याज को साहूकार
गाँजे  को गंजेड़ी
वैसे ही चाहते हैं वे तुम्हें
उनके लिए
सफेद काग़ज पर
(उनकी पुस्तक के फलैप पर लिखे)
चमचम चमक रहे हैं
तुम्हारे शब्द
स्मैक  की तरह
उन्हें याद आ रहे हैं
वे क्षण
जब किताब घर से छपी थी
उनकी किताब
या संपादित की थीं
कहानियां
यकीन करो
बहुत चाहते हैं वे तुम्हें
जिनकी रचनाओं को
ज़गह मिली थी
किसी बड़ी लघुपत्रिका में
तुम्हारी कृपा से
 जिनकी छपी थीं
साहित्य समाचार में
उनके लंगोट
अभी भीआंसुओं से तर हैं
जो सीख रहे थे
कुश्ती तुम्हारे अखाड़े में
बहुत याद करते हैं वे लोग भी
जिन्हे किसी विधा का
झंडा -डंडा
थमा दिया था तुमने
सबसे बुरा हाल है उनका
जिनकी छपनी  हैं अभी शेष
वे भी रो -रो कर
बेहाल हैं
तुम्हारी याद में
जो खड़े  होकर तुम्हारी बगल में
बन जाते थे नामवर .


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बरगद के नीचे का पादप

                        डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'               जैसे बरगद के नीचे उगने वाले पादप आगे चलकर कुपोषित होकर न केवल ...