इस अंक के लिए अत्यधिक रचनाएँ प्राप्त होने के कारण व्यंग्य विशेषांक को दो खंडों में प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया है । द्वितीय खण्ड भी शीघ्र ही आपके पास पहुंचेगी । पत्रिका को डाउनलोड करने के लिए इस लिंक पर जाएँ :
इस अंक की रचनाएँ
- संपादक की
कलम से…व्यंग्य के बाईपास से
गुजरते हुए-5/
- तुम्हारी याद में-(सुशील सिद्धार्थ को याद करते हुए
)-डॉ गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुण शेखर’-8
- श्रद्धांजलि
: सुशील सिद्धार्थ- विवेक रंजन
श्रीवास्तव/9
- सुशील सिद्धार्थ ...कुछ याद रहा ,कुछ भूल गयी !- विजय पुष्पम-11
- सुशील सिद्धार्थ और उनकी व्यंग्य रचनाए.
पवनेन्द्र ठकुराठी 'पवन'-14
- चौराहा,बस और तीर्थयात्री - सुशील सिद्धार्थ-17
- कहानी –नपनी- दूधनाथ सिंह-21
- व्यंग्य काव्य : जरूरत और समय- भुवनेश्वर
उपाध्याय-33/
- "साहित्य, सिनेमा और कर्मशील व्यक्तित्व: हिंदी
भाषा के निकष "-डॉ चंद्रकांत तिवारी-38
- क्या खोया क्या पाया,गणतंत्र के अड़सठ
वर्षों में- हेम चन्द्र सकलानी 41
- सिक्के की मौत- बिनय कुमार शुक्ल-44
- कुछ
कहावतों का चीड़-फाड़- बिक्रम कुमार साव-47
- ‘वाह री दुनिया’(पार्ट-2, 3)- अपर्णा घोष -49
14. हास्य व्यंग्य:पेर लीं पार लीं मध
नियर गाड़ लीं- जनकदेव जनक/-59
- सात जन्मों तक इनकमिंग फ्री. कृष्ण कुमार यादव/64
- आई एस आई मार्क साहित्य भूषण . डॉ. कौशल किशोर
श्रीवास्तव/67
- अर्थशास्त्र का कुल्फ़ी सूत्र- कमलानाथ-69
- आपके
जूते उनके सगे. डॉ. कौशल किशोर श्रीवास्तव/72
- पहली
नजर में प्यार- अरुण अर्णव खरे -73
- लाइक
दो,
लाइक
लो
-... अरुण अर्णव
खरे /75
- ‘अंगूर खट्टे नहीं थे’--इन्द्रजीत कौर-77
- चुनाव-मैदान
में बंदूकसिंह - सुरेश कांत/80
- अथातो दुष्कर्म
जिज्ञासा (बलात्कार:एक असांस्कृतिक अनुशीलन )-यशवंत कोठारी-85
- ड्रैस कोड--मदन गुप्ता सपाटू/88
- कोहिनूर-चेतन भाटी -91
- स्त्रियों का
पुरुषीकरण- दीपक शर्मा-93
- आशिक कातिलाना- अभिषेक
अवस्थी -95
- फेसबुक
के वरिष्ठजन- अमित शर्मा -97
- आयो हिन्दी का त्योहार- सुदर्शन
वशिष्ठ-99
- कसौटी जन प्रतिनिधि की
--मृदुल कश्यप
-102
- साहित्य
उत्त्थान का शर्तिया इलाज ...!! -
अलंकार रस्तोगी -105
- साहित्यकार बनिये बनिए
-
डॉ नीरज सुधांशु -107
- गरीब
हटाओ : देश बचाओ - डॉ. मीनाक्षी जयप्रकाश सिंह -110
- लघु कथा
- क्रांतिकारी
की कथा-हरिशंकर परसाई -116
- आम लेखक के
कंधों पर लटका वेताल - बी.एल.आच्छा -118
- “क्या से क्या हो
गया...?”- अमित पुरोहित
[C.A.]-120
- कविता : बबूल के पेड़ पर सूरज - शिवानंद ‘सहयोगी’-123
- आँसू- डॉ ज़ेबा रशीद -126
- जुलूस निकाले हैं
चौराहे-चौराहे?- डॉ
गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’/127
- अमित खरे की
कवितायें-129
- अब भी पेड़ लगाओ- अनुपम नाहर -130
- कौशल किशोर की कविताए.131
- बदलाव . डॉ0 नरेश
कुमार ''सागर''.133
- केवल शरण की कविताएँ – 134
- गजल महेश कुमार कुलदीप 'माही'-135
- शोध पत्र
- प्रेमचंद की कहानियों
में हास्य व्यंग्य-कृष्णवीर सिंह सिकरवार-136
- रामायण के अनछुये पहलू -डॉ. कौशल किशोर
श्रीवास्तव.143
50.
केदारनाथ सिंह और उनकी कविता . पवनेद्रा ठकुराठी 'पवन' .155
51.
पुस्तक
समीक्षा -158
52. दूर देश की पाती -160
53. हमारे रचनाकारों के पते -173
संपादक की कलम से…
व्यंग्य के बाईपास से गुजरते हुए
डॉ०.गंगा प्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
'ना काहू
से दोस्ती, ना काहू से बैर' की आँ पर शान चढ़ाई तलवार-सी चमचमाती डराती भाषा। उसपर से व्यंजना की तीखी
और पैनी नोक। बड़ी धार होती है व्यंग्य में।
बड़े मज़े से काटता है ये। अगर इस्लाम धर्म
के अनुयाइयों को कोई आपत्ति न हो तो इसे मैं 'आयतें पढ़-पढ़ कर काटना' कहूँगा।
व्यंग्य की भाषा ही उसकी जान होती है। यदि कोई व्यंग्यकार मँजा हुआ होता है
तो उसके व्यंग्य को कविता, कहानी या उपन्यास की देह(विधा) में होते हुए भी देह(कथ्य) को ढोना नहीं
पड़ता। व्यंग्य की भाषा चिकोटी काटने से लेकर मिर्ची लगाने तक का काम करती है। कथ्य
को तो वह बस पुश करके छोड़ देती है। यहाँ कथ्य उतना
महत्त्वपूर्ण नहीं होता जितनी की कथन भंगिमा। इस अवसर पर अनायास ही अमृत लाल नागर
के ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ की याद आ गई। उसकी नायिका विशुद्ध ब्राह्मणी है लेकिन
मेहतर से ब्याह कर लेने के बाद जब ससुराल जाती है तो उसे नानी याद आ जाती है। उसका
प्यार और दीवानगी सब हिरन हो जाते हैं। ठीक-ठीक तो याद
नहीं लेकिन शायद जब उसकी सास आँगन में पाखाना कर उससे वह उठाने के लिए कहती है। ब्राह्मणी
होने के कारण वह अपने को उस काम के लिए किसी भी कीमत पर तैयार नहीं कर पाती है। इसके
लिए उसे मार पड़ती है। उस सन्दर्भ में उसका दर्द से
भरकर ”सच में मैं मार-मार के भंगिन बना दी गई थी। ” कहना, अपनी विदग्धता के कारण
‘मार-मार के भंगी बनाना’ जैसे मूल मुहावरे से भी अधिक असरकारी लगता है।
वह इसलिए भी कि उसका वहाँ पूरी विदग्धता
के साथ प्रयोग किया गया है । यह विदग्धता किसी भी विधा में आ सकती है ।सूर अपने
पदों में यह कर पाने में सक्षम रहे हैं इसीलिए तो आज कवि और कथाकार जिसे यह
विदग्धता प्राप्त है, केवल व्यंग्यकार कहलाने में जो सुख अनुभव करता है, वह सुख
उसे कवि या कहानीकार कहलाने में नहीं मिलता।
डॉ. महेंद्र अग्रवाल का एक प्रयोग “वह शहर की नाक जैसे थे मगर कब कहां छिनकी गई, आज कोई
नहीं जानता। ”किसी के वीभत्स स्तर तक पहुंचे हुए
बनावटी वैभव का इतना प्रभावशाली चित्र खींचती है कि वर्णित व्यक्ति का मूल चरित्र
स्वतः उपस्थित हो जाता है। उसके लिए अतिरिक्त स्केच नहीं बनाने पड़ते। यही विदग्धता
है और यह विदग्धता व्यंग्यकार में भरपूर होती है। व्यंग्यकार बहुत चौकन्ना और
चुस्त-दुरुस्त होता है। शिथिलता रह जाने पर उसका तंज बेमानी हो जाता है।
आम बोलचाल
की भाषा में व्यंग्य अधिक प्रवाह के साथ बहते हुए
देखा जा सकता है। उचित है या अनुचित इसपर नैतिक भाषण देने के बजाय उसे पाठकों के
विवेक पर छोड़ व्यंग्यकार आगे बढ़ जाता है। व्यंग्यकार उपदेशक नहीं होता जो उपदेश
देने में समय जाया करे। वह तो कुछ भी गलत देखते ही चिकोटी काट लेता है। इसके
बुरे-भले परिणाम की उसे परवाह बिलकुल नहीं होती। वह कायर नहीं साहसी होता है। शुद्ध
चरित्र का और ईमानदार होता है। वह साबुन की भूमिका में रहता है। हिंदी में कबीर
में यह साबुनपन(व्यंग्यपन) अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ विद्यमान है। इसे उन्होँने
निन्दा के निकट माना है-
"निंदक नियरे राखिए।आंगन कुटी छ्वाय।
बिंन साबुन पानी बिना,निर्मल करे सुभाय।।"
संवेदन
हीन होते जा रहे समाज के बीच संवेदना का प्रदर्शन बढ़ गया है। शब्द केवल जिह्वा और
मस्तिष्क तक ही सीमित रह गए हैं। ह्रदय तक उनकी पहुँच नहीं होने से वे बनावटी हो
गए हैं। इसी का लाभ उठाकर नेतागण लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने में सफल हो गए। व्यंग्य हमेशा दुर्बल के पक्ष में खड़ा होता
है।लोकतंत्र में व्यंग्य विपक्ष में बैठकर अपना राजनीति में लोक हित बचाए रखता है।
मूल्य बोध का प्रशिक्षण देता है। उसका प्रशिक्षण साहित्य और राजनोंती दोनों धर्मों
के एक साथ निर्वाह में सफल रहता है। इस उदाहरण से जाना जा सकता है कि कितने बारीक
रेशों के ताने-बाने में मूल्यबोध इसमें अन्तर्निहित रहता है, “यह भीड़ की महिमा है जो रंक को राजा बना देती है। भीड़ के कारण ही बड़े
राजा का मुकुट उनके चरणों की धूल से सुशोभित होता है। भीड़ में आमजन धूल धूसरित
होता है और श्रेष्ठ जन उसी धूल-माटी से खनन माफिया के नये राज्य में प्रवेश कर
जाते हैं । स्मरणीय और उल्लेखनीय यह है कि राज्याभिषेक में भीड़ की ज़रुरत नहीं
होती और दरबार में सदैव दरबारी ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं,आम
आदमीनहीं। ”
हमारे
तथाकथित सांस्कृतिक समाज की असली पोल खुल चुकी है। उसकी रसिक मिजाजी ने स्त्री
जीवन को कितने बड़े संकट के सामने ला खड़ा कर दिया है। उसकी भीतरी रसिक मिजाजी का जो सुंदर चित्र एक व्यंग्यकार खींच सकता है, वह चित्रकार भी नहीं। उसकी एक बानगी प्रस्तुत है। इसी से व्यंग्यकार की परिलक्षित भाषा और दृष्टि के साथ-साथ इन दोनों में अंतर्व्याप्त व्यंजना की
गुणवत्ता सही-सही मापी या भाँपी
जा सकती है, “सनातन काल
से जब जब, जहां जहां असामाजिक, अनैतिक, असंवैधानिक शारीरिक संबंधों
का शगूफ़ा उठा वहां-वहां गली मुहल्ले क्या पूरे शहर भर का आदमी खुर्दबीन लेकर
ढूंढने लगता है कि कौन, कहां, किससे लगा है? पराई औरतों के देह दर्शन के शौकीन लोगों ने ब्रिटिश राजकुमारों को हनीमून
भी चैन से न मनाने दिया। ऐसी ऐसी दूरबीनें ढूंढ लाये जो दो चार किलोमीटर दूर से भी
चौकस तस्वीरें खींच लें। जैसे ब्रह्माण्ड
में नये ग्रह की खोज का जिम्मा इन्हीं पर हो। इधर खोज हुई उधर न्यूज चैनलों ने
वीडियो राइट्स हाथों हाथ लिये। फोटोग्राफ के लिए तो न्यूजपेपर और मैग्जीन वाले
वैसे भी दौड़ धूप करते रहते हैं। पुराने लोग इसी को कहते थे आम के आम गुठलियों के
दाम। ”
समाचारों की बाढ़ यानी सूचना क्रान्ति के युग में सारी दुनिया में थू-थू हो
रही है। हमारे न्यूज़ चैनल अलंकारों की भाषा में कविता नहीं समाचार परोस रहे है। राजा
नहीं रहे तो क्या? ये प्रजातंत्र के भांड़ बनकर समाचारों से ही प्रजा का मनोरंजन कर रहे
हैं। यह ध्यान दिए बिना कि देश में कहीं कुछ अच्छा हो रहा है केवल भ्रष्टाचार और
बलात्कार की सूचनाएँ परोसी जा रही हैं। दुनिया की सारी औरतों को दुनिया भर के
राक्षस केवल भारत में ही दिखने लगे हैं। चीन में रहते हुए हर बालिका से बात करते
हुए समाचार परोसने की इस बलात्कारी प्रवृत्ति से
ज़रूर दो-चार होना पड़ा है। समाचार अब सूचना
के लिए नहीं मनोरंजन के लिए लिखे जा रहे हैं। उन्हें कभी पुरुष तो कभी किसी महिला
के द्वारा लिपस्टिक लगी होठों के बीच लिप लाक किया जा रहा है। समाचार की इस बदलती
चारित्रिक निष्ठा और बाज़ारू शैली का बहुत सुंदर वर्णन डॉ महेंद्र अग्रवाल कंना और ऊदबिलाव’ शीर्षक व्यंग्य में देखा जा सकता है-“जबसे देश आज़ाद हुआ है निंदकों
की पौबारह हो गई है। सब छुट्टे सांड़ की तरह घूम रहे हैं। कुछ निंदा के अभ्यास के लिये पत्रकार बन गये। जो बचे वे टी.वी. चैनलों के रिपोर्टर और एंकर बन गये। निंदा रस की अति हुई तो उस पर नियंत्रण की
ज़रूरत आन पड़ी. . . . .आलोचना का आविष्कार भी आंखें फैला फैलाकर ऐसे ही लोगों ने किया होगा। ”
पाकिस्तान की विदेश मंत्री की भारत यात्रा पर
लिखा गया व्यंग्य पुरुष मानसिकता का बहुत सुंदर मनोविश्लेषण करता है। अगर चाहें तो
इससे अपराधों की वृत्ति को नैदानिक समाधन दे सकते हैं “पड़ोसी
देश की खूबसूरत विदेश मंत्री
जब हमारे यहां आईं तो हमारे विदेश मंत्री के साथ-साथ प्रशासनिक सचिवों और मीडिया
के लोगों को भी दीवाना बना गईं। उन्होंने जिस-जिस से हाथ
मिलाया उनकी हथेलियां तो क्या कुहनी और कंधों के जोड़ भी याद करते हैं। ”यह व्यंग्यकार की अपनी क्षमता ही कही जाएगी कि जो प्रेमिल अहसास अब तक हथेलियों तक सीमित
रहा करता था उसे उसने कुहनी और कन्धों तक पहुँचा दिया है।
व्यंग्य
के बाईपास से गुजरते हुए बिना किसी लाग-लपेट के यह कहा जा सकता है कि समकालीन
व्यंग्य बीसवीं सदी के दो महान व्यंग्यकारों हरिशंकर परसाई और शरद जोशी जी के
राजपथों के बीच से जो बाइपास निकलता है उसपर तेज़ भाग रहा है।
तुम्हारी याद में
(सुशील सिद्धार्थ को याद करते हुए )
जैसे शहद को चाहता है भालू
ब्याज को साहूकार
गाँजे को गंजेड़ी
वैसे ही चाहते हैं वे तुम्हें
उनके लिए
सफेद काग़ज पर
(उनकी पुस्तक के फलैप पर लिखे)
चमचम चमक रहे हैं
तुम्हारे शब्द
स्मैक की तरह
उन्हें याद आ रहे हैं
वे क्षण
जब किताब घर से छपी थी
उनकी किताब
या संपादित की थीं
कहानियां
यकीन करो
बहुत चाहते हैं वे तुम्हें
जिनकी रचनाओं को
ज़गह मिली थी
किसी बड़ी लघुपत्रिका में
तुम्हारी कृपा से
जिनकी छपी थीं
साहित्य समाचार में
उनके लंगोट
अभी भीआंसुओं से तर हैं
जो सीख रहे थे
कुश्ती तुम्हारे अखाड़े में
बहुत याद करते हैं वे लोग भी
जिन्हे किसी विधा का
झंडा -डंडा
थमा दिया था तुमने
सबसे बुरा हाल है उनका
जिनकी छपनी हैं अभी शेष
वे भी रो -रो कर
बेहाल हैं
तुम्हारी याद में
जो खड़े होकर तुम्हारी बगल में
बन जाते थे नामवर .
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