23 अक्तूबर 2016

इंदुसंचेतना का नवीनतम अंक(विशिष्ट प्रतिभा विशेषांक) अक्टूबर -दिसंबर 2016

इंदुसंचेतना का नवीनतम अंक(विशिष्ट प्रतिभा विशेषांक) अक्टूबर -दिसंबर 2016 प्रकाशित हो चुका है । इसे issuu.com  pothi.com से डानलोड किया जा सकता है ।  

14 सितंबर 2016

श्रद्धांजलि हिंदी साहित्य के ‘बागी साहित्यकार’ ‘मुद्रा राक्षस’ लेखक दयानंद पांडेय के ब्लॉग 'सरोकारनामा' से

नहीं रहे हिंदी के बाग़ी साहित्यकार मुद्राराक्षस जी,
विनम्र श्रद्धांजलि, लाल सलाम!!!--हिंदी के चंबल का एक बाग़ी मुद्राराक्षस"-- दयानंद पांडेय
 
अगर मुद्राराक्षस के लिए मुझ से कोई एक वाक्य में पूछे तो मैं कहूंगा कि हिंदी जगत अगर चंबल है तो मुद्राराक्षस इस चंबल के बाग़ी हैं । जन्मजात बाग़ी । ज़िंदगी में उलटी तैराकी और सर्वदा धारा के ख़िलाफ़ चलने वाला कोई व्यक्ति देखना हो तो आप लखनऊ आइए और मुद्राराक्षस से मिलिए। आप हंसते , मुसकुराते तमाम मुर्दों से मिलना भूल जाएंगे। हिप्पोक्रेटों से मिलना भूल जाएंगे । मुद्राराक्षस की सारी ज़िंदगी इसी उलटी तैराकी में तितर-बितर हो गई लेकिन इस बात का मलाल भी उन को कभी भी नहीं हुआ । उन को कभी लगा नहीं कि यह सब कर के उन्हों ने कोई ग़लती कर दी हो । वास्तव में हिंदी जगत में वह इकलौते आदि विद्रोही हैं। बहुत ही आत्मीय किस्म के आदि विद्रोही। पल में तोला, पल में माशा ! वह अभी आप से नाराज़ हो जाएंगे और तुरंत ही आप पर फ़िदा भी हो जाएंगे । वह कब क्या कर और कह बैठेंगे, वह ख़ुद नहीं जानते। लेकिन जानने वाले जानते हैं कि वह सर्वदा प्रतिपक्ष में रहने वाले मानुष हैं ।
   वह जब बतियाते हैं और अतीत में जाते हैं तो लगता है कि कोलकाता में ज्ञानोदय की नौकरी का समय उन के जीवन का गोल्डन  पीरियड था। हालांकि वह ऐसा शब्द या कोई भावना व्यक्त नहीं करते । लेकिन जब एक बार मैं नवभारत टाइम्स में था तब बातचीत में जो भाव उन के शब्दों में आए, उन से मैं ने यह निष्कर्ष निकाला है । हो सकता है मेरा यह आकलन सही भी हो, हो सकता है मेरा यह आकलन ग़लत भी हो । कुछ भी हो सकता है । पर कोलकाता के ज्ञानोदय और उस में अपनी नौकरी का ज़िक्र वह तब के दिनों बड़े गुमान से करते मिले थे । मुद्राराक्षस ने आकाशवाणी की गरिमामयी नौकरी भी की है । तब के दिनों वह असिस्टेंट डायरेक्टर हुआ करते थे । पर यूनियनबाज़ी में वह गिरिजा कुमार माथुर से मोर्चा खोल बैठे । झगड़ा जब ज़्यादा बढ़ गया तो वह नौकरी से बेबात इस्तीफ़ा दे बैठे । नौकरी में समझौता कर के जो रहे होते मुद्राराक्षस तो बहुत संभव है वह डायरेक्टर जनरल हो कर रिटायर हुए होते । नहीं डायरेक्टर जनरल तो डिप्टी डायरेक्टर जनरल हो कर तो रिटायर हुए ही होते । जैसे कि उन के साथ के तमाम लोग हुए भी । अच्छी ख़ासी पेंशन पा कर ऐशो आराम की ज़िंदगी गुज़ार रहे होते । लेकिन मुद्रा का चयन यह नहीं था । सुभाष चंद्र गुप्ता उर्फ़ मुद्राराक्षस तो जैसे संघर्ष का पट्टा लिखवा कर आए हैं इस दुनिया में । घर में, बाह, साहित्य और ज़िंदगी में भी । मुद्रा तो जब दिनकर की उर्वशी की जय जयकार के दिन थे तब के दिनों उन्हों ने अपनी लिखी समीक्षा में उर्वशी की बखिया उधेड़ दी थी । नाराज हो कर दिनकर ने उन से कहा कि  कुत्तों की तरह समीक्षा लिखी है । तो मुद्रा ने पलट कर दिनकर से कहा कि कुत्तों के बारे में कुत्तों की ही तरह लिखा जाता है । दिनकर चुप हो गए थे । ऐसा मुद्रा ख़ुद ही बताते हैं ।
   मुद्राराक्षस शुरुआती दिनों में लोहियावादी थे । लोहिया के मित्र भी वह रहे । इतना कि  रंगकर्मी शिराज जी से मुद्राराक्षस का विवाह भी लोहिया ने ही करवाया। लेकिन यह देखिए बाद के दिनों में लोहिया से मुद्रा का मोहभंग हो गया । मुद्रा वामपंथी हो गए । लोहिया को फासिस्ट लिखने और बताने लग गए मुद्राराक्षस । बात यहीं नहीं रुकी मुद्रा जल्दी ही वामपंथियों के कर्मकांड पर टूट पड़े । माकपा एम को वह भाजपा एम कहने से भी नहीं चूके । सब जानते हैं कि मुद्राराक्षस एक समय अमृतलाल नागर के शिष्य थे । न सिर्फ़ शिष्य बल्कि उन का डिक्टेशन भी लेते थे । नागर जी की आदत थी बोल कर लिखवाने   की । बहुत लोगों ने नागर जी का डिक्टेशन लिया है । मुद्रा भी उन में से एक हैं । मुद्रा नागर जी के प्रशंसकों में से एक रहे हैं । लेकिन कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के एक कार्यक्रम में अमृतलाल नागर पर जब उन्हें बोलने के लिए कहा गया तो मुद्राराक्षस ने जैसे फ़तवा जारी करते हुए कहा कि अमृतलाल नागर बहुत ही ख़राब उपन्यासकार थे । उपस्थित श्रोताओं, दर्शकों में उत्पात मच गया । नागर जी के तमाम प्रशंसक मुद्राराक्षस पर कुपित हो गए । लेकिन मुद्रा अड़ गए तो अड़ गए । नागर जी को वह ख़राब उपन्यासकार बताते ही रहे । इसी तरह एक समय मुद्राराक्षस भगवती चरण वर्मा को जनसंघी बताते नहीं थकते थे । लेकिन सब कुछ और सारे जीवट के बावजूद मुद्राराक्षस इस सब में बिखर गए । मुद्रा इस अकेले किए जाने के दुष्चक्र और अपमान की आह में बिन कुछ बोले घुलते गए   हैं । तिस पर उन की उलटी तैराकी और धारा के विरुद्ध चलने, और एकला चलो की ज़िद उन्हें निरंतर पथरीली राह पर ढकेलती रही है । जवानी में तो सब कुछ संभव बन जाता है । कैसे भी, कुछ भी हो जाता है । लेकिन उम्र के साथ बदलते समय से मुद्राराक्षस ने आज भी समझौता नहीं किया है । एकला चलो की उन की ज़िद और जीवन शैली उन्हें शायद आज भी कहीं सहेजती है, ताकत देती है उन्हें । पर बिखरने से बचा नहीं पाती । तिस पर उन पर किसिम-किसिम के आक्रमण भी दाएं-बाएं से जब-तब होते ही रहते हैं । ख़ास कर प्रेमचंद को दलित विरोधी कह कर जैसे उन्हों ने बर्रइया के छत्ते में हाथ ही डाल दिया था । फिर तो क्या-क्या नहीं कहा गया । यह भी कि वह सुनार भी हैं ।
   सच यह है कि लखनऊ में एक समय यशपाल, भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर की त्रिवेणी कही जाती थी । मतभेद उन में भी थे । होते ही थे । स्वाभाविक है । लेकिन वह लोग अपने मतभेद भी एक गरिमा के तहत ही निपटा लिया करते थे । वाकये कई सारे हैं । पर प्रसंगवश एक वाकया सुनाता हूं यहां । लखनऊ के महानगर कालोनी में भगवती चरण वर्मा का घर तब के दिनों बन चुका था । यशपाल जी का घर निर्माणाधीन था । भगवती बाबू के घर चित्रलेखा में कई सारे लेखक एक दिन बैठे थे । यशपाल और नागर जी भी थे । किसी ने यशपाल जी को सलाह दी कि आप भी अपने घर का नाम दिव्या रख लीजिए । यशपाल जी सुन कर भी टाल गए यह बात । लेकिन जब यह बात फिर से दुहराई गई तो यशपाल जी ने बहुत धीरे से प्रतिवाद किया और कहा कि मैं ने सिर्फ़ दिव्या ही नहीं लिखा  है । बात आई, गई हो गई । किसी ने किसी की बात का बुरा भी नहीं माना । और नागर जी के पास तो जीवन पर्यंत अपना घर नहीं हो पाया । किराए के घर में ही वह अंतिम सांस लिए । ख़ैर, मैं मानता हूं की इस त्रिवेणी के विदा होने के बाद भी लखनऊ में एक त्रिवेणी पुनः उपस्थित थी । श्रीलाल शुक्ल, मुद्राराक्षस और कामतानाथ की त्रिवेणी । तीनों ही बड़े लेखक हैं । पर दुर्भाग्य से यह त्रिवेणी अपनी वह गरिमा शेष नहीं रख पाई । जो यशपाल, भगवती चरण वर्मा और अमृतलाल नागर की त्रिवेणी ने विरासत में छोड़ी थी । इस में श्रीलाल शुक्ल की जो एक्सरसाइज थी, सो तो थी ही, मुद्राराक्षस की एकला चलो की ज़िद, धारा के विरुद्ध चलने की अदा भी कम नहीं रही है । जैसे कि मुझे याद है कि जब कामतानाथ की पचहत्तरवीं जयंती मनाई गई तो उस कार्यक्रम की अध्यक्षता मुद्राराक्षस को ही करनी तय हुई थी । पर ऐन वक़्त पर मुद्रा ने आने से इंकार कर दिया । ऐसे और भी तमाम वाकये मुद्राराक्षस के जीवन में उपस्थित हैं । जैसे कि वह मुद्रा के आला अफसर की बहार के दिन थे । तब सोवियत संघ का ज़माना था । दर्पण के लोगों द्वारा आला अफसर के मंचन का कार्यक्रम सोवियत संघ के कई शहरों में बनाया गया । सोवियत संघ के ख़र्च पर । सभी कलाकारों के पासपोर्ट आदि बन गए । तारीखें तय हो गईं । सब ने जाने की अप्रतिम तैयारी कर ली । ऐन वक्त पर मुद्राराक्षस बिदक गए । सोवियत संघ में एक परंपरा सी थी कि नाटक के मंचन के लिए लेखक की लिखित अनुमति भी ज़रूरी होती थी । मुद्राराक्षस ने लिखित अनुमति देने से साफ इंकार कर दिया । दर्पण के लोगों ने बहुत समझाया । मनुहार किया । कहा कि आप को भी चलना है । मुद्रा बोले, मुझे जाना ही नहीं है । सोवियत संघ में आला अफ़सर का वह मंचन रद्द हो गया । दर्पण के लोग इस बाबत आज भी मुद्राराक्षस को माफ़ नहीं करते । मुद्रा का नाम आते ही किचकिचा पड़ते हैं । गरिया देते हैं । असल में मुद्रा के यहां असहमतियां बहुत हैं और उन से असहमत लोग भी बहुत हैं । बेभाव कहिए या थोक के भाव कहिए ।
  लेकिन मुद्राराक्षस तो ऐसे ही हैं । वह अमूमन किसी के शादी-व्याह में  या पारंपरिक कार्यक्रम में भी कहीं नहीं देखे जाते । वह बुलाने पर भी नहीं जाते । एक समय एक फीचर एजेंसी राष्ट्रीय फ़ीचर्स नेटवर्क में मैं संपादक था । इस का कार्यालय तब विधानसभा मार्ग पर आकाशवाणी से सटा हुआ था । एक बार वहां मुद्राराक्षस अचानक आ गए । मैं बहुत ख़ुश हुआ । उन से लिखने का आग्रह किया । वह तुरंत मान गए । यह वर्ष 1994 -1995 का समय था । वह पहले हफ्ते में एक लेख लिखते थे । बाद में दो लेख लिखने लगे । विविध विषयों पर । बस उन की शर्त होती थी कि हर हफ़्ते भुगतान मिल जाना चाहिए । लेख चाहे जब छपे । तो वह हफ़्ते में तीन बार आते । दो बार लेख देने, एक बार भुगतान लेने । मुझ पर प्यार भी बहुत लुटाते । इसी प्यार के वशीभूत एक बार पारिवारिक कार्यक्रम में बुलाते हुए निमंत्रण पत्र दिया उन्हें । उन्हों ने आने से साफ इंकार कर दिया । कहने लगे ऐसे किसी कार्यक्रम में नहीं आता-जाता । मैं चुप रह गया था तब । बहुत बार किसी के निधन आदि पर अंत्येष्टि में भी वह अनुपस्थित होते हैं। हां  , लेकिन तीन बार अभी तक मैं ने उन्हें लोगों के निधन पर ज़रूर देखा है । एक अमृतलाल नागर के निधन पर वह बहुत ग़मगीन मिले भैसाकुंड पर । दूसरी बार राजेश शर्मा की आत्महत्या के बाद उन के घर पर उन के परिवार को सांत्वना देते हुए । और तीसरी बार श्रीलाल शुक्ल के निधन पर फिर भैसाकुंड पर । बहुत विचलित मुद्रा में । मुद्राराक्षस को जितना परेशान और विचलित श्रीलाल शुक्ल के निधन पर  देखा, उतना परेशान और विचलित मैं ने उन्हें कभी नहीं देखा । लगता था कि जैसे उन से, उन का क्या छिन गया है । ऐसे जैसे वह किसी गहरी यातना में हों । उन के चेहरे पर छटपटाहट की वह अनगिन रेखाएं मेरी आंखों में जैसे आज भी जागती मिलती हैं । तो इस का कारण भी है । श्रीलाल शुक्ल और मुद्राराक्षस दोनों का विविध विषयों पर अध्ययन लाजवाब था । विद्वता की प्रतिमूर्ति हैं दोनों । हिंदी , अंगरेजी , संस्कृत और संगीत पर दोनों की ही अद्भुत पकड़ थी, है ही । फ़र्क बस यह रहा कि मुद्राराक्षस ने कई बार अपने अतिशय अध्ययन का अतिशय दुरूपयोग किया है । ध्वंस की हद तक दुरुपयोग किया है । और उसे एकला चलो की ज़िद पर कुर्बान कर दिया है । बारंबार । श्रीलाल जी ने अपने अध्ययन का सुसंगत उपयोग किया है । कहूं कि मैनेज किया है । और इसी ' मैनेज ' के दम पर अनगिन बार मुद्राराक्षस को वह प्रकारांतर से उकसाते रहे हैं और मुद्राराक्षस अतियों की भेंट चढ़ते गए हैं । निरंतर ।
  मुद्राराक्षस से जब मैं पहली बार मिला तब बीस साल का था । यह 1978 की बात है । गोरखपुर में मैं विद्यार्थी था । संगीत नाटक अकादमी की नाट्य प्रतियोगिता में मुद्राराक्षस बतौर ज्यूरी मेंबर गोरखपुर गए थे । लखनऊ से विश्वनाथ मिश्र और दिल्ली से देवेंद्र राज अंकुर भी बतौर ज्यूरी मेंबर पहुंचे थे गोरखपुर । अमृतलाल नागर ने उद्घाटन किया था । मुद्रा उन दिनों हाई हिल का जूता, मोटी नाट वाली टाई बांधे छींटदार बुश्शर्ट और कोट पहने मिले थे । सब लोग होटल में ठहरे थे पर मुद्राराक्षस परमानंद श्रीवास्तव के घर पर ठहरे   थे । तब मुद्रा से मैं ने एक इंटरव्यू भी किया था । और उन से मिल कर एक नई ऊर्जा से भर गया था । उन दिनों वह रामसागर मिश्र कालोनी में रहते थे, जो अब इंदिरा नगर है । उन से चिट्ठी-पत्री होने लगी थी । वह इंटरव्यू दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर तब के दिनों छपा भी था । उन्हीं दिनों मैं परिचर्चाएं भी बहुत लिखता था । रंगकर्मियों को ले कर एक परिचर्चा खातिर उन्हों ने तब न सिर्फ़ कई सारे नाम सुझाए बल्कि सब के पते भी लिखवाए । बंशी कौल, सुरेका सीकरी, मनोहर सिंह, उत्तरा  बावकर जैसे कई रंगकर्मियों के पते उन्हें तब जुबानी याद थे । कहा कि सब को मेरा नाम भी लिख सकते हैं, जवाब आएगा । सचमुच सब का जवाब आया था तब । बाद के दिनों मैं लखनऊ आता तो शाम के समय काफी हाऊस में प्रबोध मजूमदार, राजेश शर्मा के साथ वह एक कोने की मेज पर बैठे मिल जाते थे ।
 मुद्राराक्षस ने राजनीतिक जीवन भी जिया है । दो बार चुनाव भी लड़ा है इसी लखनऊ में और अपनी ज़मानत भी ज़ब्त करवाई है । लेकिन राजनीति में भी कभी उन्हों ने समझौता नहीं किया है । कभी किसी के पिछलग्गू नहीं बने हैं । किसी की परिक्रमा नहीं की है । गरज यह कि साहित्य और ज़िंदगी की तरह वह राजनीति में भी सर्वदा अनफिट ही रहे हैं । नरसिंहा राव तब के दिनों प्रधानमंत्री थे । मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे । डंकल प्रस्ताव की दस्तक थी । पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह लखनऊ के एक सेमिनार में आए थे । सहकारिता भवन में  आयोजित डंकल प्रस्ताव के खिलाफ यह सेमिनार था । तमाम ट्रेड यूनियन के लोग उस में उपस्थित थे । विश्वनाथ प्रताप सिंह तब जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे । मुद्राराक्षस तब के दिनों लखनऊ शहर जनता दल के अध्यक्ष थे । कार्यक्रम शुरू होने की औपचारिकता हो चुकी थी । विश्वनाथ प्रताप सिंह मंच पर उपस्थित थे । अचानक मुद्राराक्षस आए । सुरक्षा जांच के तहत मेटल डिटेक्टर से गुज़रने को उन्हें कहा गया । मुद्रा बिदक गए । सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें समझाया कि पूर्व प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़ी यह प्रक्रिया है । मुद्रा का बिदकना जारी रहा । कहा कि मैं उन की पार्टी का शहर अध्यक्ष हूं, मुझ से भी ख़तरा है उन्हें? और जब बिना जांच के उन्हें घुसने से मना कर दिया गया तो वह पलट कर कार्यक्रम से बाहर निकल गए । विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंच पर बैठे ही बैठे सब देख रहे थे । उन्हों ने कुछ कार्यकर्ताओं से कहा कि अरे, मुद्रा जी नाराज़ हो कर जा रहे हैं । उन्हें मना कर ले आइए । उन्हों ने पूर्व विधायक डी पी बोरा और उमाशंकर मिश्रा को इंगित भी किया । यह लोग लपक कर मुद्रा के पीछे लग गए । मुद्रा को मनाने लगे । लेकिन मुद्रा तो यह गया, वह गया हो गए । विधान भवन तक लोग मुद्रा को मनाते हुए आए । लेकिन मुद्रा नहीं लौटे तो नहीं लौटे । मैं उन दिनों नवभारत टाइम्स में था । कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए आया था । लेकिन कार्यक्रम छोड़ कर मैं भी साथ-साथ लग लिया यह देखने के लिए कि मुद्रा मानते हैं कि नहीं । मैं ने देखा कि मुद्रा किसी की बात सुनने को भी तैयार नहीं  थे । लगातार कहते रहे कि अब इस अपमान के बाद लौटना मुमकिन नहीं है ।
  मुद्राराक्षस के साथ ऐसी अनगिन घटनाएं उन के जीवन में उपस्थित हैं । भारत में उन दिनों विदेशी चैनलों की दस्तक और आहट के दिन थे । वर्ष 1996 की बात है । मीडिया मुगल रूपर्ट मर्डोक ने स्टार में एडवाइजर बनाने के लिए बात करने को बुलाया था । निमंत्रण प्रस्ताव के साथ ही डॉ०लर वाला चेक भी नत्थी था । उन दिनों मैं राष्ट्रीय सहारा में आ चुका था । एक दिन मुद्रा जी राष्ट्रीय सहारा आए और रूपर्ट मर्डोक की वह चिट्ठी दिखाई सब के बीच और डॉ०लर वाला चेक भी । कहने लगे कि लेकिन मैं जाऊंगा नहीं । मेरे मुंह से निकल गया कि फिर यह चेक भी क्यों दिखा रहे हैं? मुद्रा हंसे । और वह डॉ०लर वाला चेक तुरंत फाड़ कर रद्दी की टोकरी में डाल दिया । मुद्राराक्षस के बहुत से उपकार मुझ पर हैं । पर एक उपकार के ज़िक्र का मोह छोड़ नहीं पा रहा हूं । एक बार नागर जी पर लिखे एक संस्मरणात्मक लेख में संकेतों में ही सही उन की ज़िंदगी में आई कुछ स्त्रियों का ज़िक्र कर दिया था । नागर जी से अपनी एक पुरानी बातचीत के हवाले से । राष्ट्रीय सहारा के संपादकीय पृष्ठ पर यह संस्मरणात्मक लेख छपा था । उस में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं  था । लेकिन दफ़्तर के ही कुछ सहयोगियों ने नागर जी के सुपुत्र शरद नागर को भड़का दिया । शरद नागर मेरे ख़िलाफ़ लिखित शिकायत ले कर उच्च प्रबंधन के सम्मुख उपस्थित हो गए । मुझ से स्पष्टीकरण मांग लिया गया । मैं ने स्पष्टीकरण तो दे दिया पर संकट फिर भी टला नहीं था । जाने कैसे मुद्राराक्षस को यह सब पता चल गया । फोन कर के मुझ से दरियाफ़्त किया । मैं ने पूरा वाकया बताया । मुद्रा बोले, इस में ग़लत तो कुछ भी नहीं है । तुम ने कुछ भी ग़लत नहीं लिखा है । बल्कि बहुत कम लिखा है । ऐसे विवरण तो बहुत हैं नागर जी के जीवन में । मुझे बहुत पता है । और फिर कई और सारे वाकये बताए उन्हों ने । मुद्रा यहीं नहीं रुके । बिना मेरे कहे उच्च प्रबंधन से भी वह अनायास मिले और मेरी बात की पुरज़ोर तस्दीक की । कहा कि कुछ भी ग़लत नहीं लिखा है । बात ख़त्म हो गई  थी ।
  हज़रतगंज के काफी हाऊस में उन के साथ बैठकी के तमाम वाकये हैं । लेकिन एक वाकया भुलाए नहीं भूलता।  एक जर्मन स्कालर आई थी । वह भारतीय नाटकों और संगीत के बारे में जानना चाहती थी । वीरेंद्र यादव, राकेश, आदि कुछ और लोग भी थे । हिंदी उस की सीमा थी । अंगरेजी और संस्कृत लोगों की सीमा थी । अचानक मुद्राराक्षस ने हस्तक्षेप  किया । और जिस तरह बारी-बारी संस्कृत और अंगरेजी में धाराप्रवाह बोलना शुरू किया, वह अद्भुत था । हम अवाक् देखते रहे मुद्रा को । एक बार ऐसे ही कैसरबाग़ के कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर में संस्कृत के कोट दे-दे कर भरत मुनि के नाट्य शास्त्र की धज्जियां उड़ाते मैं मुद्रा को देख चुका था । लेकिन काफी हाऊस में मुद्रा की यह विद्वता देख कर मैं ही क्या सभी दंग थे । काफी हाऊस में पिन ड्राप साइलेंस था तब । भारतीय नाटकों और संगीत पर ऐसी दुर्लभ जानकारियां मुद्रा जिस अथॉरिटी के साथ परोस रहे थे, जिस तल्लीनता से परोस रहे थे वह विरल था । वह जर्मन स्कालर जैसे गदगद हो कर गई थी । उस की गगरी भर गई थी, ज्ञान के जल से । मुद्रा के लिए उस के पास आभार के शब्द नहीं रहा गए थे । निःशब्द थी वह । और हम मोहित । बाद के दिनों में एक दोपहर रस रंजन के समय इस घटना का ज़िक्र बड़े सम्मोहन के साथ मैं ने श्रीलाल शुक्ल से एक बैठकी में किया । श्रीलाल जी अभिभूत थे यह सुन कर। फिर धीरे से बोले अध्ययन तो है ही उस आदमी के पास । मैं ने जोड़ा, और शार्पनेस भी । श्रीलाल जी ने हामी भरी, सांस ली । और अफ़सोस के साथ बोले पर इस सब का तो वह लगभग दुरूपयोग ही कर रहे हैं ! लखनऊ मेरा लखनऊ में मनोहर श्याम जोशी ने आज के मुद्राराक्षस को तब के सुभाष चंद्र गुप्ता को जिस तरह उपस्थित किया है वह भी अविस्मरणीय है ।
  स्त्री और दलित विमर्श के लिए झंडा भले राजेंद्र यादव के हाथ में चला गया था लेकिन मुद्राराक्षस के ज़रूरी हस्तक्षेप को हम भला कैसे भूल सकते हैं? हां, यह भी ज़रूर है कि मुद्रा इस विमर्श में अति की हद तक निकल जाते रहे हैं । शायद इसी लिए वह कई बार बहुत लोगों को हजम नहीं हो पाते । उन की बात लोगों को चुभ-चुभ जाती है । मुद्रा का मकसद भी यही  होता है कि उन की बात लोगों को चुभे और ख़ूब चुभे । लेकिन इस फेर में वह दाल में नमक की जगह नमक में दाल भी ख़ूब करते रहे हैं । और बहुतेरे लोगों के लिए जहरीले बन कर उपस्थित होते रहे हैं । लेकिन मुद्रा ने कभी इस सब की परवाह नहीं की है । शायद करेंगे भी नहीं । उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने के लिए भी उन के संघर्ष को कैसे भूला जा सकता है? कई-कई दिन तक उन्हें विधान भवन के सामने हमने धरना देते देखा है । बार-बार इस के लिए लड़ते देखा है । एक समय दलित मुद्दों को ले कर वह बहुत सक्रिय थे । मायावती उन्हीं दिनों मुख्यमंत्री बनीं । लोग कहने लगे कि हिंदी संस्थान की कुर्सी हथियाने का उपक्रम है यह । मैं ने लोगों से कहा कि फिर आप लोग मुद्राराक्षस को नहीं जानते । वह कैसे बन सकते थे ? बाग़ी और किसी कुर्सी पर ? नामुमकिन ! समाज के और ज़रूरी मसलों पर भी उन्हें जूझते देखा ही है लखनऊ की सड़कों ने, लोगों ने । मुद्रा चुप मार कर बैठ जाने वालों में से नहीं हैं । हार शब्द तो जैसे उन की डिक्शनरी में ही नहीं है । अख़बारी कालमों में उन की आग की तरह दहकती टिप्पणियां अभी भी मन में सुलगती मिलती हैं । वैसे भी वह कहानी, उपन्यास, नाटक आदि की जगह विचार को ज़्यादा तरजीह देते रहते हैं । घर की उन की लाइब्रेरी में भी साहित्य से ज़्यादा वैचारिक किताबें ज़्यादा मिलती हैं । रंगकर्मी राकेश उन्हें बुद्ध, कबीर और ग़ालिब का समुच्चय मानते हैं । राकेश ठीक ही कहते हैं । हां, यह ज़रूर है कि ग़ालिब और कबीर उन में ज़्यादा हैं । बुद्ध कम । ऐसा मेरा मानना है । राकेश ग़ालिब का एक क़िस्सा सुनाते हैं । कि ग़ालिब मस्जिद, नमाज़, वमाज के फेर में नहीं पड़ते थे । पर एक बार शराब का टोटा पड़ा तो वह नमाज़ के लिए मस्जिद गए । अभी वजू कर ही रहे थे कि उन का एक साथी उन्हें पुकारते हुए , बोतल दिखाते हुए बोला कि, ग़ालिब साहब, ले आया हूं ! ग़ालिब बिना नमाज़ के लौटने लगे तो मौलवी ने टोका कि बिना नमाज़ के क्यों जा रहे हैं ? ग़ालिब बोले, जब वजू में ही क़ुबूल हो गई तो नमाज़ का क्या करना ! और मस्जिद से बाहर आ गए । मुद्रा के साथ भी यह सब है । मुद्रा के साथ रस-रंजन के भी कई क़िस्से हैं । लेकिन अभी एक ताज़ा क़िस्सा सुनिए । कथाक्रम में डिनर की रात शैलेंद्र सागर ने मुद्रा को घर पहुंचाने का जिम्मा मुझ पर डाल दिया । मैं ने सहर्ष स्वीकार लिया । अब हम दुर्विजय गंज की गलियों में भटक गए । मुद्रा जी भी अपनी गली नहीं पहचान पा रहे थे । भटकते-भटकते हम लोग मोती नगर की गलियों में बड़ी देर तक घूमते रहे । खैर किसी तरह पहुंचे 78 दुर्विजय गंज । अब दूसरे दिन भी लंच के बाद शैलेंद्र सागर ने फिर मुझे मुद्रा जी को घर पहुंचाने का जिम्मा दे दिया । मैं अचकचाया । उन्हें रात का क़िस्सा बयान किया । और बताया कि कल तो रात थी, अब दिन है, कार को बैक करने मोड़ने में भीड़ के कारण मुश्किल होगी । गलियां पतली हैं । शैलेंद्र सागर नहीं माने । एक सहयोगी ज़रुर साथ दे दिया । मदद के लिए । कि अगर घर तक कार न भी पहुंच पाए तो यह सहयोगी घर तक मुद्रा को पहुंचा देगा । अब यूनिवर्सिटी पेट्रोल  पंप पर पेट्रोल डलवाते समय मुद्रा ने उस सहयोगी से कुछ कहा । कहा कि पुल पार करते ही बाईं तरफ दुकान है । अब पुल पार करते ही उन्हों ने रुकने को कहा । मैं रुक गया । अब वह सहयोगी कार से उतरने को तैयार नहीं हो रहा था । मुद्रा बुदबुदाते हुए ह्विस्की की बात कर रहे थे । मैं ह्विस्की को बिस्किट सुन रहा था । मैं ने कहा भी कि आगे भी बहुत दुकानें मिलेंगी । मुद्रा बोले, यहीं ठीक रहेगा ।  मैं ने कहा कि कोई खास ब्रांड का बिस्किट है क्या ? साथ में कवियत्री शीला पांडेय जी भी थीं । वह बोलीं, बिस्किट नहीं, ह्विस्की कह रहे हैं । तब मैं अचकचाया । उस सहयोगी का कहना था कि मेरे गांव का या कोई परिचित देख लेगा तो क्या कहेगा ? और उस ने शराब की दुकान पर ह्विस्की लेने जाने से साफ इंकार कर दिया । मैं शराब आदि कभी ख़रीदता नहीं । सो मैं ने भी मना कर दिया । रास्ते में मुद्रा लगातार कहते  रहे अब तुम  मेरे दोस्त नहीं रहे । बुदबुदाते रहे , तुम कितने अच्छे दोस्त थे । लेकिन अब दोस्त नहीं रहे । आदि-आदि । मैं चुपचाप सुनता रहा । खैर इतवार होने के नाते बहुत भीड़ नहीं थी । सो कार कहीं फंसी नहीं । उन के घर आराम से पहुंच गए हम लोग । मुद्रा को कार से उतार कर उन के घर में दाखिल करते हुए  लगभग उन से माफ़ी मांगते  हुए कहा कि  माफ़ कीजिए , आप की फरमाइश पूरी नहीं कर पाया । मुद्रा ने मेरी पूरी बात सुने बिना कहा कोई माफ़ी नहीं, मुझे आग्नेय नेत्रों से देखा और फिर दुहराया कि अब तुम मेरे दोस्त नहीं रहे, भाग जाओ ! और घर में अकेले घुस गए । लेकिन कल जब मुद्रा जी अपनों के बीच कार्यक्रम में वह मिले तो लपक कर गले लगा लिया मुझे । वैसे ही बच्चों की तरह निश्छल हंसी में मुदित । सर्वदा की तरह ।

कल उन के  जन्म-दिन की पूर्व संध्या पर यह कार्यक्रम सचमुच मुद्रा जी के लिए ही नहीं, लखनऊ के लिए भी सौभाग्य बन कर आया । जिस तरह तमाम लेखक, रंगकर्मी मुद्रा जी से सारे भेद-मतभेद बुला कर इकट्ठा हुए वह बहुत ही सैल्यूटिंग है । पूरा कार्यक्रम सब को ही इतना भावुक कर देने वाला था कि पूछिए मत । धाराप्रवाह बोलने वाले, बोलने में हरदम कठोर रहने वाले मुद्रा कल किसी मोमबत्ती की तरह पिघलते रहे, किसी बर्फ़ की सिल्ली की तरह गल-गल कर बहते रहे भावनाओं में । इतना कि जब उन के बोलने का समय आया तो वह ठीक से बोल नहीं पाए । कहा भी कई बार कि मैं आज ठीक से बोल नहीं पा रहा । लोगों ने समझा कि अस्वस्थता के कारण, कमजोर हो जाने के कारण वह नहीं बोल पा रहे । लेकिन सच यह नहीं था । सच यह था कि वह बहुत भावुक हो गए थे अपने सम्मान में बिछे सब को देख कर । इतना अपनत्व पा कर । अब तक उपेक्षित चले आ रहे व्यक्ति को अगर समूचा लखनऊ एक साथ सैल्यूट करने उतर आया हो तो कोई भी हो , भले ही वह मुद्राराक्षस जैसा बाग़ी ही क्यों न हो, भावुक तो हो ही जाएगा । वह तो मुद्राराक्षस थे, उन की जगह जो कोई और होता तो वह मारे ख़ुशी के विह्वल हो कर रो पड़ता । सच मुद्रा को मैं ने जाने कितनी गरमी, बरसात, जाड़ा भोगते देखा है । जाने कितने संघर्ष , जीते-मरते और लड़ते देखा है । पर जितना भावुक होते कल उन्हें देखा है, कभी नहीं देखा । इस तरह तो नहीं ही देखा । एक बाग़ी भी भावुक हो सकता है, फिल्मों में तो बहुत बार देखा है, जीवन में पहली बार कल देखा है । हिंदी जगत के इस चंबल के बाग़ी को सत-सत नमन!

संपादक की कलम से…

हिंदी सेवा की ज़ादूगरी और तिलिस्म

      अपने देश जाता हूँ तो ज़गह-ज़गह भाषा के ज़ादूगर तमाशा दिखाते हुए मिल जाते हैं। बड़े-बड़े संस्थानों और विश्विद्यालयों के भव्य मंचों से लेकर तहसील/कचहरी/कलेक्टरी कहाँ-कहाँ इनका ज़ादू नहीं पसरा है। जहाँ छोटे-मोटे ज़ादूगर लाल रंग लगाकर गर्दन काटने की शैली में दर्शकों को विश्वास दिलाते हैं कि इनसे बडा हिंदी सेवक कोई नहीं है, वहीं बड़े-बड़े ज़ादूगर हिंदी के सामने दूसरी भाषाओं के जहाज डुबाते हुए दिखाते हैं। दर्शक गद्गद् होकर तालियां पीटते-पीटते हथेलियां लाल कर लेते हैं। इनके लिए द्वार पर भी सेवक और पहरेदार लट्ठ लिए खडे मिलते हैं । बाहर निकलते समय हाथ देखे जाते हैं । किसके हाथ कितने घायल हैं इसके हिसाब उन्हे भाषा-भक्ति का प्रमाण पत्र मिलता है।  इसलिए जो ज़्यादा नहीं पीट पाते हैं उन्हें इनसे बचा-बचा के निकलना पड़ता है। यदि ऐसा न करे तो पकड़ में आने पर हाथ नहीं कुछ और लाल कराके जाना पड़ सकता है।  निकलते हुए लगता है कि अब नहीं तब धर ही लिए जाएंगे।  पकड़े गए तो फोड़ देंगे कपार।
   हमारी हिंदी सेवा की मौखिक परीक्षा वायुयान में ही आरंभ हो जाती है।  प्रश्नावली क्या करते हैं से शुरू होती है। सबके पास इन प्रश्नों की देशी छर्रों और बारूद से लोडेड एकनाली बंदूक होती है ।  इन सभी की एकनाली बंदूकों में  जो बारूद भरी रहती है, वह देश प्रेम की होती है ।  सभी एक ही सवाल दागते हैं।  चीन में भी लोग हिंदी पढ़ते हैं क्या? इस 'क्या' पर  वे इतना ज़ोर लगाते हैं कि कभी-कभी प्राण वायु और अपान वायु में प्रतियोगिता -सी हो जाती है। उन्हें किस मीडियम से पढ़ाते हो? इसके बाद वे क्यों पर आते हैं? ये काफी पढ़े -लिखे किस्म के लोग होते हैं।  ये लोग दूसरों को हिंदी पढ़वाने का आनंद लेते हुए स्वयं को आंग्ल लोक में प्रतिष्ठापित कर चुके होते हैं। इनके बच्चे अमेरिका या किसी यूरोपीय देश में होते हैं।  लेकिन वे अंग्रेज़ी माध्यम से विज्ञान पढ़ कर चिकित्सक या अभियंता बन कर वहाँ गए हुए होते हैं।  यही हिंदी के ज़ादूगरी करते मिलते हैं।  सबसे कहते हैं हिंदी से प्रेम करो और अपने को उस नियम का अपवाद बनाए रखते हैं। मैं तो अपने देश के इन हिंदी सेवकों से बहुत डरता हूँ। इनकी भक्ति बडी भावुक किस्म की होती है। उनसठ, उन्हत्तर, उन्यासी और नवासी में अभेद भाव रखने वाले ये हिंदी भक्त जब भी परीक्षा पर उतर आते हैं तो लेके ही छोड़ते हैं।  मसलन 'वहाँ हिंदी किस मीडियम से सिखाते हैं? शुरू में क्या सिखाते हैं? क्या क,, ग घ से शुरू करते हैं?" जब हम कहते हैं कि 'नहीं' तो वे फिर से  नया सवाल दाग देते हैं, "फिर कहाँ से शुरू करते हैं?" मैं कहता हूँ 'अ आ इ ई से'।  इसपर वे शर्मिंदा नहीं होते बल्कि डांटते हुए कहते हैं ,"बात एक ही है न चाहे अ आ इ ई से शुरू करो चाहे क ख ग घ से । "जब मैं कहता हूँ कि आपने ही पूछा था कि कहाँ से शुरू करते हैं, सो मैंने आपके प्रश्न के उत्तर में यह बात बताई है।  इसमें क्या है आगे से हम क ख  ग घ से शुरू कर देंगे। वे बातें करते हुए मंद-मंद मुस्काते जाते हैं।  इस मुस्कान से वे बताना चाहते हैं कि ऐसा तुच्छ हिंदी ज्ञान लेकर वायुयान में बैठे लोगों को बताना कि, 'मैं दूसरे देश में हिंदी सिखाता हूँ, उनका ही नहीं वायुयान का भी अपमान है। 'एक ही नहीं कई  तरह से  वे 'क ख ग घ 'पर ज़ोर देकर मेरी औकात बताते हैं। मैं भी भीतर-भीतर जान जाता हूँ कि इनका आशय क्या है पर बाहर से अनभिज्ञ बना रहता हूँ।  
   देश के भीतर खूब आंकडे इकट्ठे किए जाते हैं कि किस देश में कितने लोग हिंदी जानते हैं। दुनिया की दूसरी या तीसरी भाषा सुनकर खुशी से लोग झूमने लगते हैं।  लेकिन कोई इस सच्चाई को कबूलने के लिए तैयार ही नहीं रहता कि यह संख्या उन गरीब और मध्यम वर्ग के कारण है जिन्हें हिंदी या अंग्रेज़ी के राज-काज में कोई फर्क नहीं दिखता । आज भी इनमें से अधिकांश को तो अंगूठा लगाना होता है फिर वह अंग्रेज़ी हो या हिंदी इस बात से उन पर क्या फर्क पडता है। इनकी गिनती पर अपनी जय बुलवाने वाले ज़ादूगर नहीं तो और क्या हैं
    पत्रिका के वर्तमान अंक के लिए सोचा कि कोई विज्ञापन आ जाए तो बोझ कुछ कम हो जाएगा । यहाँ की दो राष्ट्रीयकृत भारतीय बैंकों  में से एक को पत्र  लिखा और दूसरी से मौखिक अनुरोध किए।  मैंने इस तरह भी बात की कि, 'आपकी आर्थिक सहायता मेरी पत्रिका के लिए प्राणवायु का काम करेगी। 'लेकिन उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि, "ऊपर के अधिकारियों ने मना कर दिया है। "ये ही वे लोग हैं जो हमें फिर से 10 जनवरी को  'विश्व हिंदी दिवस'  पर बुलाकर फूल मालाएं चढ़ाएंगे, चित्र खींचेंगे और अपने मुख्यालय (दिल्ली-मुंबई स्थित हेड क्वार्टर) भेज देंगे। हिंदी सेवक होने के नाते इनके यहाँ पहले की तरह फिर अपने किराए से जाऊंगा । ये लोग खूब लंबी-चौड़ी हाँकेंगे । मैं शांत भाव से सुनूंगा तो पर पहले की तरह अपने भाषण में हेड क्वार्टर भेजे जाने के लिए इनकी हिंदी सेवा की झूठी तारीफें न रिकार्ड करवा पाऊंगा।  भले ही ये लोग समझें न समझें अगले संबोधन में मैं पक्का यही बोलने वाला हूँ कि 'हिंदी की सबसे  बड़ी सेवा यही है कि शब्दों की आत्मा को जिएं खुद उनकी निर्मम हत्या करके  लाश न ढोएं।
      शब्दों की लाश ढोने वाले ये ज़ादूगर हिंदी के भितरघाती शत्रु हैं।  इनके पास पहुंचकर देव वाणी के अमृत शब्द भी  कितनी ज़ल्दी मृत हो जाते हैं यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।  हिंदी दिवस पर  भी 'हिंदी डे' बोल सकते है।  आपके लिए 'ग्रीन टी' या 'लेमन टी' मंगा सकते हैं। अगर आप भीतर से हिम्मत जुटाकर 'हरी चाय' या 'नींबू चाय 'कहें तो आप पर ठठाकर हंस सकते हैं और आपकी हिंदी को 'डिफिकल्ट' और आकवर्ड  कहकर  हिंदी की इस अनुपयोगिता पर लंबा व्याख्यान भी दे सकते हैं। इस तरह से ऐसे अवसरों पर ये जाने-अनजाने हिंदी का मज़ाक बना सकते हैं।  उसके सरल रूप को वे इतना सरल बना देने की वकालत भी करने लग सकते हैं कि बस गूगल के लिप्यंतरण से काम चल जाए ।   
   मुझे हिंदी के लिए अपने अभियान में लगे देखकर अनेक चीनी और भारतीयों ने देखा-सुना तो उनमें से कुछ नेक आगे आए और अनेकश: तारीफें कीं । मैं गद्गद् हुआ।  कई अवसरों पर फूलकर कुप्पा भी हुआ।  लेकिन हर बार यही अंदेशा रहता है कि यह सेवा कब तक कर पाऊंगा और कब तक झूठी-सच्ची तारीफों की हवा से कुप्पा होता रहूंगा। कभी हवा सुर्र से निकल गई तो 'कुप्पा' से कुप्पी हो सकता हूँ और  मेरा मुखर स्वर मौन या चुप्पी में बदल सकता है।  बिना पैसों के पत्रिका तो निकलती नहीं। वे पैसे जो मैं लगाता हूँ उनपर सिर्फ मेरे साहित्यिक शौक का ही नहीं बाल-बच्चों का भी अधिकार है।
   इस मिशन में मुझे उन हिंदी सेवकों से भी मिलने का सुवसर मिला जो ज़ादूगर नहीं है।  उनके पास न तो जहाज गायब करने का सम्मोहनी ज़ादू है और न ही हिंदी के लिए गला काटने वाला काला ज़ादू। लेकिन उनके पास समर्पण भाव का ज़ादू है। इन्हीं में से एक हैं । यहाँ की सहायक प्रोफेसर थ्यान खफिंग। एक दिन सुबह-सुबह आईं और पत्रिका निकालने के मेरे ज़ुनून को बल दे गईं। वे बार-बार मना करने पर भी ज़बरन पांच सौ युआन का सहयोग कर गईं। वे न नाम चाहती थीं और न यश बस सेवा भाव से आई थीं और बिना चाय पिए ही उल्टे पांव निकल गईं।  यह भी तो उन्हें नहीं पता था  कि उनका नाम भी लिया जाएगा।  वे गुप्त दान करके चली गई थीं । यह तो मेरी नालायकी है जो उनकी आस्था का  अवमूल्यन  कर रहा हूँ।  इसके अतिरिक्त मेरे दो मित्र हैं एक रणवीर सिंह राठी और दूसरे शर्मा जी रेस्टोरेंट वाले।  इनका  हिंदी से बस  दूर-दूर  का ही नेह-नाता है पर अपने देश और समाज की भाषा के उत्थान के लिए यह जानते हुए भी कि यह उनके व्यापार में कहीं से सहायक नहीं है, हमारे कंधों के बोझ को महसूस ही नहीं किया थोड़ा-बहुत उतारा भी। अब मैं सोचता हूँ कि हिंदी का भला,भला  उन तिलस्मियों और  ज़ादूगरों की तिलस्म या ज़ादूगरी से होगा या फिर इन सच्चे सेवकों के ऐसे उदार और व्यावाहरिक सहयोग से से।
    हिंदी सेवा के सबसे बडे ज़ादूगर वे  साहित्यकार हैं जो हिंदी सेवा में हवाई यात्राएं कर-करके थक चुके हैं और चार-पांच मुक्तकों को चार-पांच बार पगुराने के पांच लाख रुपए लेता है और बिजनेस क्लास का टिकट ऊपर से।  कहाँ वो और कहाँ ये साहित्य निर्माता फिर भी  बेचारे इकोनोमी में बैठकर तकलीफें उठाते हुए जाते हैं। हिंदी साहित्य की यह सेवा इन दिनों खूब हो रही है।  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इन सुविधाओं के साथ साहित्य में बेहतरी लाने में मदद कर रहा है।  मुझे लगता है कि यदि इनकी ही तरह भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, डा० राम विलास शर्मा, दुश्यंत, धूमिल, भगवत रावत, अदम गोंड्वी  और भी अनेक कवियों/लेखकों को अगर यह सुविधा मिली होती तो वे हिंदी की सरस अंगूरी बेल को क्या से क्या और कितना से कितना न कर देते। कहाँ-कहाँ तक नहीं फैला देते और वे वहीं नहीं बस जाते यह सब करके समय पर वापस  लौट भी आते। उसके बाद तो बस उस फैली हुई बेल की लतरों से अंगूर तो-तो के खाने भर रह जाते।  
  हमारे पाठक यह न समझें कि मैं आलसी हूँ  इस लिए उन्हें यह अवश्य बता देना चाहता हूँ कि इसमे आई पाठ्य सामग्री बड़े जतन से आई है।  इसलिए पूरी पत्रिका पढ़ें ।  हर लेखक या कवि पठनीय है।  कोई छोटा या बड़ा नहीं है। ऐसे बड़े को भी लेकर हम-आप क्या  करेंगे जो पढ़ने को ही न मिले।  मैं बड़े-बड़े नाम जानता हूँ । चाहता हूँ कि उनमें से अधिकांश  इसमें छपें उसके लिए कोशिश भी करता हूँ। एकाध पत्राचार आप भी देखें-
 प्रिय अग्रज जी! आपने मुझसे कुछ वादा किया था।  और उसे नियमित रखने का भी वायदा किया था। शायद याद हो । 'इंदु संचेतना' पत्रिका के लिए कुछ भेजिए । व्यंग्य/ कहानी, संस्मरण या आलेख कुछ भी भेजिए । उत्कृष्ट न सही उच्छिष्ट ही भेजिए। बड़ो का उच्छिष्ट भी ग्राह्य और पवित्र होता है।  इस पत्रिका को तारिए जगन्नाथ! आपके लेखन से जग तर रहा है और मैं ही अभागा अछूत पडा रहूं । यह आप जैसे करुणा के सागर को शोभा नहीं देता ।  कब तक ऐसे अतरे रखोगे? अब तो पार उतारो, तारो प्रभु! उपकृत करो दीनानाथमैं मानता हूँ कि आपको पत्रिका अपने स्तर की नहीं लगने का संकोच होगा। सच में पत्रिका आपके स्तर की नहीं है।  लेकिन जब आप छपेंगे तभी न पत्रिका आपके स्तर की होगी।
      यह भाषा किसी एक को नहीं लिखी है और व्यंजना में भी नहीं लिखी है।  इसलिए इसपर हमारे साहित्यकार मित्र क्रुद्ध न हों। यह मैं जिनको भी लिखा हूँ उन्हें वास्तव में  हिंदी का बड़ा सेवक मानता हूँ और उनके उत्कृष्ट या उच्छिष्ट तक को स्वीकारने को तैयार भी हूँ पर जब वे तैयार हों तब न ! इनमें से अधिकांश हमारी टाइम लाइन पर बड़े गर्व से प्रकट होते हैं।  कभी -कभी बड़ी धज के साथ अवतार लेते हैं लेकिन मेरे संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका में छपने से गुरेज़ करते हैं।  मुझे लगता है कि कहीं मैं गलत न होऊं।  जिन्हें मैं हिंदी के सेवक माने बैठा हूँ वे खुद को उसका स्वामी न मानते हों।  उनके अपने-अपने विधागत साम्राज्य हैं। वे उनके सिंहासनों पर विराजमान भी हैं । बाबा तुलसीदास भी कह गए हैं 'प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं'।  इस ध्रुव सत्य के  आस-पास खडे होकर सोचें तो हो सकता है कि न्याय मिले।  हो सकता है कि वे  ज़ंज़ीर खींच-खींचकर रचनाएं मांगने और बेहाल हो जाने पर करुणा की भीख देकर ज़हांगीरी न्याय करना चाहते हों। कभी-कभी और कहीं-कहीं ही नहीं बल्कि प्राय: हर बड़े साहित्यकार के दर पर इस तरह से भी हो रही है हिंदी सेवा और उसकी ज़ादूगरी।  
   कुछ महान साहित्यकार तो अपनी तिलिस्म रचना के कारण महान हो गए। इनकी   तिलस्म रचना को समझना  इतना आसान नहीं है। कवियों औए लेखकों ने  कुछ आलोचक पैदा किए और फिर इन  आलोचको ने कवि और कथाकर ।  इन सबने मिलकर साहित्य के एक मायावी दुर्ग की रचना की जिसमे कोई अपरिचित कवि और लेखक घुसता ही नहीं था। इस तरह बड़े आलोचकों ने कुछ बड़ी कविताएं और कहानियां  चुनीं । ये उन्ही बडे कवियों/कहानीकारों की थीं जो उनके निर्माता थे।  आगे चलकर उनकी कविता इसलिए और भी बड़ी हो गई कि उन्हे बड़े-बड़े सम्मान मिल गए।  जब तक उनके  तिलिस्म को तोने वाला कोई नहीं आया वे बेताज़ बादशाह  भी बने रहे।  
खैर! यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि 'नक्कारखाने में तूती की आवाज़' की तरह  इन ज़ादूगरों/तिलस्मियोंक  के सामने मुझ जैसे छुटभैए हिंदी सेवकों की क्या बिसात है या उनके आगे 'इंदु संचेतना' जैसी पत्रिकाओं को कौन घास डालेगा और इन शब्दों से मैं उन ज़ादूगरों का बिगा/उखा भी क्या लूंगा ? लेकिन यह भी उतना ही सच है कि लाख नगाड़े बज रहे हों फिर भी उनके बीच  किसी सिरफिरे को कोई पिपिहरी बजाने से भी  नहीं रोक सकता।   
   सितंबर का महीना हिंदी के ज़ादूगरों के लिए नए-नए करतब दिखाने का महीना होता है। इन दिनों कोने में पड़े-पड़े सड़ रहे बैनर के भी दिन बहुरते हैं। उसकी काई छूट जाती है और फाइलों की धूल। इसी महीने हिंदी की कुछ किताबों की खरीद भी हो जाती है और वे बच्चों को पुरस्कार के रूप में मिल भी जाती हैं । हमारे हिंदी सेवकों की यह सेवा इस अर्थ में उल्लेखनीय है कि कम से कम इसी बहाने वे हिंदी किताबों को हाथ लगाते हैं। उनके पवित्र हाथ हिंदी के इसी श्राद्ध मास में हैरी पाटर से गोदान और 'पूस की रात' तक पहुंचते हैं। चेतन भगत से कबीर, तुलसी, सूर, निराला, महादेवी की कविताओं और मन्नू भंडारी के महाभोज तक भी पहुंच जाते हैं।

                                                                                              जय हिंद !!  जय हिंदी !!!!

बरगद के नीचे का पादप

                        डॉ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर'               जैसे बरगद के नीचे उगने वाले पादप आगे चलकर कुपोषित होकर न केवल ...