14 सितंबर 2016

संपादक की कलम से…

हिंदी सेवा की ज़ादूगरी और तिलिस्म

      अपने देश जाता हूँ तो ज़गह-ज़गह भाषा के ज़ादूगर तमाशा दिखाते हुए मिल जाते हैं। बड़े-बड़े संस्थानों और विश्विद्यालयों के भव्य मंचों से लेकर तहसील/कचहरी/कलेक्टरी कहाँ-कहाँ इनका ज़ादू नहीं पसरा है। जहाँ छोटे-मोटे ज़ादूगर लाल रंग लगाकर गर्दन काटने की शैली में दर्शकों को विश्वास दिलाते हैं कि इनसे बडा हिंदी सेवक कोई नहीं है, वहीं बड़े-बड़े ज़ादूगर हिंदी के सामने दूसरी भाषाओं के जहाज डुबाते हुए दिखाते हैं। दर्शक गद्गद् होकर तालियां पीटते-पीटते हथेलियां लाल कर लेते हैं। इनके लिए द्वार पर भी सेवक और पहरेदार लट्ठ लिए खडे मिलते हैं । बाहर निकलते समय हाथ देखे जाते हैं । किसके हाथ कितने घायल हैं इसके हिसाब उन्हे भाषा-भक्ति का प्रमाण पत्र मिलता है।  इसलिए जो ज़्यादा नहीं पीट पाते हैं उन्हें इनसे बचा-बचा के निकलना पड़ता है। यदि ऐसा न करे तो पकड़ में आने पर हाथ नहीं कुछ और लाल कराके जाना पड़ सकता है।  निकलते हुए लगता है कि अब नहीं तब धर ही लिए जाएंगे।  पकड़े गए तो फोड़ देंगे कपार।
   हमारी हिंदी सेवा की मौखिक परीक्षा वायुयान में ही आरंभ हो जाती है।  प्रश्नावली क्या करते हैं से शुरू होती है। सबके पास इन प्रश्नों की देशी छर्रों और बारूद से लोडेड एकनाली बंदूक होती है ।  इन सभी की एकनाली बंदूकों में  जो बारूद भरी रहती है, वह देश प्रेम की होती है ।  सभी एक ही सवाल दागते हैं।  चीन में भी लोग हिंदी पढ़ते हैं क्या? इस 'क्या' पर  वे इतना ज़ोर लगाते हैं कि कभी-कभी प्राण वायु और अपान वायु में प्रतियोगिता -सी हो जाती है। उन्हें किस मीडियम से पढ़ाते हो? इसके बाद वे क्यों पर आते हैं? ये काफी पढ़े -लिखे किस्म के लोग होते हैं।  ये लोग दूसरों को हिंदी पढ़वाने का आनंद लेते हुए स्वयं को आंग्ल लोक में प्रतिष्ठापित कर चुके होते हैं। इनके बच्चे अमेरिका या किसी यूरोपीय देश में होते हैं।  लेकिन वे अंग्रेज़ी माध्यम से विज्ञान पढ़ कर चिकित्सक या अभियंता बन कर वहाँ गए हुए होते हैं।  यही हिंदी के ज़ादूगरी करते मिलते हैं।  सबसे कहते हैं हिंदी से प्रेम करो और अपने को उस नियम का अपवाद बनाए रखते हैं। मैं तो अपने देश के इन हिंदी सेवकों से बहुत डरता हूँ। इनकी भक्ति बडी भावुक किस्म की होती है। उनसठ, उन्हत्तर, उन्यासी और नवासी में अभेद भाव रखने वाले ये हिंदी भक्त जब भी परीक्षा पर उतर आते हैं तो लेके ही छोड़ते हैं।  मसलन 'वहाँ हिंदी किस मीडियम से सिखाते हैं? शुरू में क्या सिखाते हैं? क्या क,, ग घ से शुरू करते हैं?" जब हम कहते हैं कि 'नहीं' तो वे फिर से  नया सवाल दाग देते हैं, "फिर कहाँ से शुरू करते हैं?" मैं कहता हूँ 'अ आ इ ई से'।  इसपर वे शर्मिंदा नहीं होते बल्कि डांटते हुए कहते हैं ,"बात एक ही है न चाहे अ आ इ ई से शुरू करो चाहे क ख ग घ से । "जब मैं कहता हूँ कि आपने ही पूछा था कि कहाँ से शुरू करते हैं, सो मैंने आपके प्रश्न के उत्तर में यह बात बताई है।  इसमें क्या है आगे से हम क ख  ग घ से शुरू कर देंगे। वे बातें करते हुए मंद-मंद मुस्काते जाते हैं।  इस मुस्कान से वे बताना चाहते हैं कि ऐसा तुच्छ हिंदी ज्ञान लेकर वायुयान में बैठे लोगों को बताना कि, 'मैं दूसरे देश में हिंदी सिखाता हूँ, उनका ही नहीं वायुयान का भी अपमान है। 'एक ही नहीं कई  तरह से  वे 'क ख ग घ 'पर ज़ोर देकर मेरी औकात बताते हैं। मैं भी भीतर-भीतर जान जाता हूँ कि इनका आशय क्या है पर बाहर से अनभिज्ञ बना रहता हूँ।  
   देश के भीतर खूब आंकडे इकट्ठे किए जाते हैं कि किस देश में कितने लोग हिंदी जानते हैं। दुनिया की दूसरी या तीसरी भाषा सुनकर खुशी से लोग झूमने लगते हैं।  लेकिन कोई इस सच्चाई को कबूलने के लिए तैयार ही नहीं रहता कि यह संख्या उन गरीब और मध्यम वर्ग के कारण है जिन्हें हिंदी या अंग्रेज़ी के राज-काज में कोई फर्क नहीं दिखता । आज भी इनमें से अधिकांश को तो अंगूठा लगाना होता है फिर वह अंग्रेज़ी हो या हिंदी इस बात से उन पर क्या फर्क पडता है। इनकी गिनती पर अपनी जय बुलवाने वाले ज़ादूगर नहीं तो और क्या हैं
    पत्रिका के वर्तमान अंक के लिए सोचा कि कोई विज्ञापन आ जाए तो बोझ कुछ कम हो जाएगा । यहाँ की दो राष्ट्रीयकृत भारतीय बैंकों  में से एक को पत्र  लिखा और दूसरी से मौखिक अनुरोध किए।  मैंने इस तरह भी बात की कि, 'आपकी आर्थिक सहायता मेरी पत्रिका के लिए प्राणवायु का काम करेगी। 'लेकिन उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि, "ऊपर के अधिकारियों ने मना कर दिया है। "ये ही वे लोग हैं जो हमें फिर से 10 जनवरी को  'विश्व हिंदी दिवस'  पर बुलाकर फूल मालाएं चढ़ाएंगे, चित्र खींचेंगे और अपने मुख्यालय (दिल्ली-मुंबई स्थित हेड क्वार्टर) भेज देंगे। हिंदी सेवक होने के नाते इनके यहाँ पहले की तरह फिर अपने किराए से जाऊंगा । ये लोग खूब लंबी-चौड़ी हाँकेंगे । मैं शांत भाव से सुनूंगा तो पर पहले की तरह अपने भाषण में हेड क्वार्टर भेजे जाने के लिए इनकी हिंदी सेवा की झूठी तारीफें न रिकार्ड करवा पाऊंगा।  भले ही ये लोग समझें न समझें अगले संबोधन में मैं पक्का यही बोलने वाला हूँ कि 'हिंदी की सबसे  बड़ी सेवा यही है कि शब्दों की आत्मा को जिएं खुद उनकी निर्मम हत्या करके  लाश न ढोएं।
      शब्दों की लाश ढोने वाले ये ज़ादूगर हिंदी के भितरघाती शत्रु हैं।  इनके पास पहुंचकर देव वाणी के अमृत शब्द भी  कितनी ज़ल्दी मृत हो जाते हैं यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।  हिंदी दिवस पर  भी 'हिंदी डे' बोल सकते है।  आपके लिए 'ग्रीन टी' या 'लेमन टी' मंगा सकते हैं। अगर आप भीतर से हिम्मत जुटाकर 'हरी चाय' या 'नींबू चाय 'कहें तो आप पर ठठाकर हंस सकते हैं और आपकी हिंदी को 'डिफिकल्ट' और आकवर्ड  कहकर  हिंदी की इस अनुपयोगिता पर लंबा व्याख्यान भी दे सकते हैं। इस तरह से ऐसे अवसरों पर ये जाने-अनजाने हिंदी का मज़ाक बना सकते हैं।  उसके सरल रूप को वे इतना सरल बना देने की वकालत भी करने लग सकते हैं कि बस गूगल के लिप्यंतरण से काम चल जाए ।   
   मुझे हिंदी के लिए अपने अभियान में लगे देखकर अनेक चीनी और भारतीयों ने देखा-सुना तो उनमें से कुछ नेक आगे आए और अनेकश: तारीफें कीं । मैं गद्गद् हुआ।  कई अवसरों पर फूलकर कुप्पा भी हुआ।  लेकिन हर बार यही अंदेशा रहता है कि यह सेवा कब तक कर पाऊंगा और कब तक झूठी-सच्ची तारीफों की हवा से कुप्पा होता रहूंगा। कभी हवा सुर्र से निकल गई तो 'कुप्पा' से कुप्पी हो सकता हूँ और  मेरा मुखर स्वर मौन या चुप्पी में बदल सकता है।  बिना पैसों के पत्रिका तो निकलती नहीं। वे पैसे जो मैं लगाता हूँ उनपर सिर्फ मेरे साहित्यिक शौक का ही नहीं बाल-बच्चों का भी अधिकार है।
   इस मिशन में मुझे उन हिंदी सेवकों से भी मिलने का सुवसर मिला जो ज़ादूगर नहीं है।  उनके पास न तो जहाज गायब करने का सम्मोहनी ज़ादू है और न ही हिंदी के लिए गला काटने वाला काला ज़ादू। लेकिन उनके पास समर्पण भाव का ज़ादू है। इन्हीं में से एक हैं । यहाँ की सहायक प्रोफेसर थ्यान खफिंग। एक दिन सुबह-सुबह आईं और पत्रिका निकालने के मेरे ज़ुनून को बल दे गईं। वे बार-बार मना करने पर भी ज़बरन पांच सौ युआन का सहयोग कर गईं। वे न नाम चाहती थीं और न यश बस सेवा भाव से आई थीं और बिना चाय पिए ही उल्टे पांव निकल गईं।  यह भी तो उन्हें नहीं पता था  कि उनका नाम भी लिया जाएगा।  वे गुप्त दान करके चली गई थीं । यह तो मेरी नालायकी है जो उनकी आस्था का  अवमूल्यन  कर रहा हूँ।  इसके अतिरिक्त मेरे दो मित्र हैं एक रणवीर सिंह राठी और दूसरे शर्मा जी रेस्टोरेंट वाले।  इनका  हिंदी से बस  दूर-दूर  का ही नेह-नाता है पर अपने देश और समाज की भाषा के उत्थान के लिए यह जानते हुए भी कि यह उनके व्यापार में कहीं से सहायक नहीं है, हमारे कंधों के बोझ को महसूस ही नहीं किया थोड़ा-बहुत उतारा भी। अब मैं सोचता हूँ कि हिंदी का भला,भला  उन तिलस्मियों और  ज़ादूगरों की तिलस्म या ज़ादूगरी से होगा या फिर इन सच्चे सेवकों के ऐसे उदार और व्यावाहरिक सहयोग से से।
    हिंदी सेवा के सबसे बडे ज़ादूगर वे  साहित्यकार हैं जो हिंदी सेवा में हवाई यात्राएं कर-करके थक चुके हैं और चार-पांच मुक्तकों को चार-पांच बार पगुराने के पांच लाख रुपए लेता है और बिजनेस क्लास का टिकट ऊपर से।  कहाँ वो और कहाँ ये साहित्य निर्माता फिर भी  बेचारे इकोनोमी में बैठकर तकलीफें उठाते हुए जाते हैं। हिंदी साहित्य की यह सेवा इन दिनों खूब हो रही है।  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इन सुविधाओं के साथ साहित्य में बेहतरी लाने में मदद कर रहा है।  मुझे लगता है कि यदि इनकी ही तरह भारतेंदु हरिश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, डा० राम विलास शर्मा, दुश्यंत, धूमिल, भगवत रावत, अदम गोंड्वी  और भी अनेक कवियों/लेखकों को अगर यह सुविधा मिली होती तो वे हिंदी की सरस अंगूरी बेल को क्या से क्या और कितना से कितना न कर देते। कहाँ-कहाँ तक नहीं फैला देते और वे वहीं नहीं बस जाते यह सब करके समय पर वापस  लौट भी आते। उसके बाद तो बस उस फैली हुई बेल की लतरों से अंगूर तो-तो के खाने भर रह जाते।  
  हमारे पाठक यह न समझें कि मैं आलसी हूँ  इस लिए उन्हें यह अवश्य बता देना चाहता हूँ कि इसमे आई पाठ्य सामग्री बड़े जतन से आई है।  इसलिए पूरी पत्रिका पढ़ें ।  हर लेखक या कवि पठनीय है।  कोई छोटा या बड़ा नहीं है। ऐसे बड़े को भी लेकर हम-आप क्या  करेंगे जो पढ़ने को ही न मिले।  मैं बड़े-बड़े नाम जानता हूँ । चाहता हूँ कि उनमें से अधिकांश  इसमें छपें उसके लिए कोशिश भी करता हूँ। एकाध पत्राचार आप भी देखें-
 प्रिय अग्रज जी! आपने मुझसे कुछ वादा किया था।  और उसे नियमित रखने का भी वायदा किया था। शायद याद हो । 'इंदु संचेतना' पत्रिका के लिए कुछ भेजिए । व्यंग्य/ कहानी, संस्मरण या आलेख कुछ भी भेजिए । उत्कृष्ट न सही उच्छिष्ट ही भेजिए। बड़ो का उच्छिष्ट भी ग्राह्य और पवित्र होता है।  इस पत्रिका को तारिए जगन्नाथ! आपके लेखन से जग तर रहा है और मैं ही अभागा अछूत पडा रहूं । यह आप जैसे करुणा के सागर को शोभा नहीं देता ।  कब तक ऐसे अतरे रखोगे? अब तो पार उतारो, तारो प्रभु! उपकृत करो दीनानाथमैं मानता हूँ कि आपको पत्रिका अपने स्तर की नहीं लगने का संकोच होगा। सच में पत्रिका आपके स्तर की नहीं है।  लेकिन जब आप छपेंगे तभी न पत्रिका आपके स्तर की होगी।
      यह भाषा किसी एक को नहीं लिखी है और व्यंजना में भी नहीं लिखी है।  इसलिए इसपर हमारे साहित्यकार मित्र क्रुद्ध न हों। यह मैं जिनको भी लिखा हूँ उन्हें वास्तव में  हिंदी का बड़ा सेवक मानता हूँ और उनके उत्कृष्ट या उच्छिष्ट तक को स्वीकारने को तैयार भी हूँ पर जब वे तैयार हों तब न ! इनमें से अधिकांश हमारी टाइम लाइन पर बड़े गर्व से प्रकट होते हैं।  कभी -कभी बड़ी धज के साथ अवतार लेते हैं लेकिन मेरे संपादन में प्रकाशित होने वाली पत्रिका में छपने से गुरेज़ करते हैं।  मुझे लगता है कि कहीं मैं गलत न होऊं।  जिन्हें मैं हिंदी के सेवक माने बैठा हूँ वे खुद को उसका स्वामी न मानते हों।  उनके अपने-अपने विधागत साम्राज्य हैं। वे उनके सिंहासनों पर विराजमान भी हैं । बाबा तुलसीदास भी कह गए हैं 'प्रभुता पाइ काहि मद नाहीं'।  इस ध्रुव सत्य के  आस-पास खडे होकर सोचें तो हो सकता है कि न्याय मिले।  हो सकता है कि वे  ज़ंज़ीर खींच-खींचकर रचनाएं मांगने और बेहाल हो जाने पर करुणा की भीख देकर ज़हांगीरी न्याय करना चाहते हों। कभी-कभी और कहीं-कहीं ही नहीं बल्कि प्राय: हर बड़े साहित्यकार के दर पर इस तरह से भी हो रही है हिंदी सेवा और उसकी ज़ादूगरी।  
   कुछ महान साहित्यकार तो अपनी तिलिस्म रचना के कारण महान हो गए। इनकी   तिलस्म रचना को समझना  इतना आसान नहीं है। कवियों औए लेखकों ने  कुछ आलोचक पैदा किए और फिर इन  आलोचको ने कवि और कथाकर ।  इन सबने मिलकर साहित्य के एक मायावी दुर्ग की रचना की जिसमे कोई अपरिचित कवि और लेखक घुसता ही नहीं था। इस तरह बड़े आलोचकों ने कुछ बड़ी कविताएं और कहानियां  चुनीं । ये उन्ही बडे कवियों/कहानीकारों की थीं जो उनके निर्माता थे।  आगे चलकर उनकी कविता इसलिए और भी बड़ी हो गई कि उन्हे बड़े-बड़े सम्मान मिल गए।  जब तक उनके  तिलिस्म को तोने वाला कोई नहीं आया वे बेताज़ बादशाह  भी बने रहे।  
खैर! यह अच्छी तरह से जानता हूँ कि 'नक्कारखाने में तूती की आवाज़' की तरह  इन ज़ादूगरों/तिलस्मियोंक  के सामने मुझ जैसे छुटभैए हिंदी सेवकों की क्या बिसात है या उनके आगे 'इंदु संचेतना' जैसी पत्रिकाओं को कौन घास डालेगा और इन शब्दों से मैं उन ज़ादूगरों का बिगा/उखा भी क्या लूंगा ? लेकिन यह भी उतना ही सच है कि लाख नगाड़े बज रहे हों फिर भी उनके बीच  किसी सिरफिरे को कोई पिपिहरी बजाने से भी  नहीं रोक सकता।   
   सितंबर का महीना हिंदी के ज़ादूगरों के लिए नए-नए करतब दिखाने का महीना होता है। इन दिनों कोने में पड़े-पड़े सड़ रहे बैनर के भी दिन बहुरते हैं। उसकी काई छूट जाती है और फाइलों की धूल। इसी महीने हिंदी की कुछ किताबों की खरीद भी हो जाती है और वे बच्चों को पुरस्कार के रूप में मिल भी जाती हैं । हमारे हिंदी सेवकों की यह सेवा इस अर्थ में उल्लेखनीय है कि कम से कम इसी बहाने वे हिंदी किताबों को हाथ लगाते हैं। उनके पवित्र हाथ हिंदी के इसी श्राद्ध मास में हैरी पाटर से गोदान और 'पूस की रात' तक पहुंचते हैं। चेतन भगत से कबीर, तुलसी, सूर, निराला, महादेवी की कविताओं और मन्नू भंडारी के महाभोज तक भी पहुंच जाते हैं।

                                                                                              जय हिंद !!  जय हिंदी !!!!

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